मंगलवार, 11 मार्च 2014

नायक विहीन समय में प्रेमचन्द की याद



कुछ तारीखें कागज के कैलेण्डरों पर दर्ज होती हैं और याद रखी जाती हैं या पर कुछ तारीखें ऐसी भी होती हैं जो दिल के कैलेन्डर में दर्ज होती हैं और अनायास याद आ जाती हैं। प्रेमचन्द की जन्मतिथि 31 जुलार्इ ऐसी ही तारीख है। काशी की नागरी प्रचारिणी सभा भले ही प्रेमचन्द जयन्ती न मनाती हो लेकिन छोटे-छोटे स्कूलों में, सुदूर ग्रामीण अंचल में सक्रिय नामालूम सी कितनी ही संस्थाएं प्रेमचन्द जयन्ती पर छोटे बड़े आयोजन करती रहती हैं। 31 जुलार्इ जैसे-जैसे करीब आती है, ग्रामीण अंचलों से प्रेमचन्द जयंती के आयोजन की खबरें मिलने लगती हैं। बिना किसी प्रेरणा या प्रोत्साहन के प्रेमचन्द जयन्ती पर आयोजनों का स्वत: स्फूर्त सिलसिला चल निकलता है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द अकेली ऐसी शखिशयत हैं जिनकी जयंती इतने बड़े पैमाने पर मनायी जाती है। कबीर और तुलसी के बाद हिन्दी पêी में ऐसी व्यापक लोक स्वीकृति प्रेमचन्द को ही प्राप्त है। प्रेमचन्द की यह लोक स्वीकृति उनकी छवि को नायक का दर्जा देती है। जिस समय में हम जी रहे हैं वह नायक विहीन समय है। हमारे सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक जीवन में ऐसे किरदार नहीं रह गये हैं जिन्हें सहजता के साथ नायक मान ले। नायक की तरह रंगमंच पर उपसिथत होने वाले हर शख्स के भीतर एक छिपा हुआ खलनायक रहता है जो अवसर-बे-अवसर प्रकट होकर फर्जी नायक का पर्दाफाश कर देता है। ऐसे समय में प्रेमचन्द जैसे लेखक की जयंती सुकून देती है।
यों तो प्रेमचन्द की छवि इतनी साधारण है कि उसमें दूर-दूर तक नायक होने की सम्भावना नहीं है। ऐसा कर्इ बार हुआ कि प्रेमचन्द से मिलने आने वाले लोग उन से ही पूछ बैठते थे कि यहाँ कहीं प्रेमचन्द रहते हंै? उनके व्यकितत्व में ऐसी कोर्इ विशिष्टता न थी जो उन्हें दूसरों से अलग करे। अमृत राय (प्रेमचन्द के बेटे और हिन्दी के कथाकार आलोचक अनुवादक) ने प्रेमचन्द का जो चित्र खींचा है वह इस प्रकार है- उसको (प्रेमचन्द को) मगर पहचानते कैसे! कोर्इ विशेषता जो नहीं है उसमें। अपने आस-पास वो ऐसा एक भी चिन्ह नहीं रखना चाहता, जिससे पता चले कि वो दूसरे साधारण जनाें से जरा भी अलग है। कोर्इ त्रिपुण्ड-तिलक से अपनी विशेषता की घोषण करता है, कोर्इ रेशम के कुर्ते और उत्तरीय के बीच से झाँकने वाले अपने ऐश्वर्य से, कोर्इ अपनी साज-सज्जा के अनोखेपन से, कोर्इ अपने किसी खास अदा या ढ़ंग से। यहाँ तक कि यत्न साधित सतर्क सरलता भी होती है जो स्वयं एक प्रदर्शन या आडंबर बन जाती है, शायद सबसे अधिक विरकितकर। देखो, इतना बड़ा नामी आदमी होकर भी मैं कितनी सादगी से रहता हूँ। प्रेमचन्द की सरलता सहज है। उसमें कुछ तो इस देश की पुरानी मिêी का संस्कार है। कुछ उसका नैसर्गिक शील है, संकोच है कुछ उसकी गहरी जीवन दृषिट है और कुछ उसका सच्चा आत्म गौरव है।
दरअसल इस देश की पुरानी मिêी का संस्कार और उससे निर्मित गहरी जीवन दृषिट ही उन्हें यह लोक स्वीकृति दिलाती है। इस गहरी जीवन दृषिट में भीगी प्रेमचन्द की कहानियाँ भारत के आम आदमी को कदम ब कदम याद आती हैं। मेरे एक पड़ोसी जो दवा का व्यापार करने हैं हरिश्चन्द्र घाट पर एक दाह संस्कार में मेरे साथ थे। चमचमाता हुआ कफन देखकर उन्हें कफन कहानी के घीसू का कथन याद आया कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढ़ाकने को चीथड़ा भी न मिले उसे मरने पर नया कफन चाहिए। मुझे आश्चर्य हुआ कि श्मशान घाट पर जिस संस्कार में शामिल होने हम आये हैं प्रेमचन्द की कहानी उसी का आलोचनात्मक पाठ हमारे सामने रख रही है। प्रेमचन्द दरअसल हमारी परम्परा के भीतरी आलोचक हैं। परम्परा के भीतर जो कुछ आलोच्य है, उसकी आलोचना करते हैं। यह आलोचना करते हुए, वे समाज और परम्परा से बाहर खड़े हुए उपदेशक की तरह नहीं; बलिक परम्परा में मौजूद संकीर्णताआें का दंश झेलते हुए सामान्य मनुष्य की तरह व्यवहार करते हैं। प्रेमचन्द जति, धर्म, स्त्री-पुरूष के नाम पर होने वाले विभेद की दृढ़तापूर्वक आलोचना करते हैं। इसीलिए एक समय में उन्हें घृणा का प्रचारक कह कर निनिदत और अपमानित करने की कोशिश की गयी थी। प्रेमचन्द ने साहित्य में घृणा का स्थान निबन्ध लिखकर बताया कि सच्चा साहित्य बचपन घृणा करने वाली वस्तु या प्रवृत्ति से घृणा करना सिखाता है।
मेरे बचपन के एक मित्र जो गाव में ही रहकर स्कूल चलाते हैं वे प्रेमचन्द की कहानी नमक का दारोगा के कायल हैं। उनका मानना है कि यह कहानी हमारे समय की सचार्इ है। र्इमानदार और कत्र्तव्यनिष्ठ नमक के दारोगा वंशीधर को व्यवस्था भ्रष्ट और पतित अलोपीदीन का सेवक बना देती है। जब वंशीकर पढ़ार्इ पूरी करके नौकरी की तलाश में निलकते हैं तो उनके अनुभवी पिता सीख देते हैं- नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूंढना जहाँ कुछ उपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है जो एक दिन दिखार्इ देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है! उपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। अनुभवी पिता की इस सीख पर वंशीधर ने भले कान न दिया हो लेकिन हमारे सामाजिक तंत्र में यह सामान्य अनुभव हो गया है। कहानी के शुरू में ही प्रेमचन्द लिखते हैं- जब नमक का नया विभाग बना और र्इश्वर प्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोर्इ घूस से काम निकालता था, कोर्इ चालाकी से। ऐसा लगता है कि प्रेमचन्द औपनिवेशिक युग में विकसित हो रहे पूजीवादी तंत्र का घोषणा पत्र ही लिख रहे हैं। एक सामान्य सी सीधी सादी कहानी समूले भ्रष्ट तंत्र की रूपक कथा बन जाती है। र्इमानदारी और कत्र्तव्य निष्ठा मुअत्तली की ओर ले जायेगी इसलिए भलार्इ अलोपीदीन का शरणागत होने में है। विशालकाय तंत्र के शोषण चक्र में दिन ब दिन पिसते और परीशान होते सीधे सरल आदमी को प्रेमचन्द की यह कहानी व्यवस्था के चरित्र को जानने और उस पर हँसने का अवसर देती है।
इसी तरह कुछ लोगों को र्इदगाह कहानी याद रहती है। कहानी का हामिद बूढ़ी दादी अमीना के लिए अपने प्यार के बल पर चिमटे जैसी कुरूप और उपेक्षित वस्तु को सुन्दर और स्पृहणीय बना देता है यह मानवीय प्यार हामिद के भीतर एक ऐसा जज्बा पैदा करता है जो उसे सारी दुनिया के विरूद्ध तन कर खड़ा होने की ताकत देता है। इसी प्यार से सारे अभावों के बावजूद अपने तमाम हम उम्र और सम्प™ा बच्चों को अपना मुरीद बना लेता है। नये पूँजीवादी समाज में मानवीय रिश्तों की अहमियत खत्म होती जा रही है। ऐसे में यह कहानी अकेले पड़ते आदमी को मानवीय रिश्तों की गहरार्इ और सम्प™ाता का एहसास कराती है।
पंच परमेश्वर कहानी के जुम्मन शेख और अलगू चौधरी अपनी न्याय निष्ठा के लिए याद किए जाते हैं। बूढ़ी काकी जैसी कहानी भूख की सृजनात्मकता का पता ही नहीं देती बलिक बूढ़ी काकियों के प्रति संवेदनशील बनाती है। लाटरी कहानी लोभ और धार्मिक कर्मकाण्डों के सम्बन्ध को उजागर करती है तो नशा कहानी झूठे दंभ की पोल खोलती है। इस तरह प्रेमचन्द की कहानियाँ हमारी आत्मा को रचती हैं। अमानवीय समय में हमें मानवीय बनाती हैं।
प्रेमचन्द का साहित्य और प्रेमचन्द का जीवन हमे यह भी बताता है कि इस देश की मिêी की सुगंध को पहचानने वाले व्यकित को ही नायक का दरजा मिल सकता है, जैसे कि गांधी को मिला।

‘प्रेमचंद’को प्रेमचन्द ही रहने दें /सदानंद शाही





इधर प्रेमचंद फिर बहस के घेरे में हैं । अबकी बहस इस बात पर हो रही है कि प्रेमचंद प्रगतिशील थे या नहीं । थोड़े दिन पहले बहस इस बात पर हो रही थी कि प्रेमचंद दलित विरोधी हैं या नहीं । अतिवादी दलित यह सिद्ध करने में लगे हुये थे कि प्रेमचंद दलित विरोधी थे । उनका मूल तर्क यही था कि वे जन्म से सवर्ण थे इसलिए वे दलित हितैषी हो ही नहीं सकते । मामला यहीं तक नहीं थमा । कुछ लोग उन्हें दलित विरोधी साबित करने में ज़मीन आसमान एक किए हुये थे । फिर क्या था ,दूसरा खेमा भी क़मर कस कर मैदान में आ डटा । ये लोग प्रेमचंद को दलित हितैषी ही नहीं बाकायदा दलित लेखक बनाने पर तुले गये  । सहानुभूति बनाम स्वानुभूति को लेकर बहस हुयी । प्रेमचंद की कृतियाँ ऐसे जोशो खरोश से जलायी गईं मानो मनुस्मृति ही जलायी जा रही हो । हालांकि जब मनुस्मृति जलायी गयी थी उस समय होश से ज्यादा काम लिया गया था । प्रेमचंद स्वयं भले सीधे –सादे रहे हों पर उनको लेकर विवादों का सिलसिला कभी थमा ही नहीं । प्रेमचंद के जीवन काल मेँ उनका विरोध वे लोग कर रहे थे जो आज की दलित राजनीति के सवर्ण हैं  । प्रेमचंद की कहानियों के पंडित मोटेराम शास्त्री प्रकट हो गए थे । ठाकुर श्रीनाथ सिंह जैसे लोग लठ्ठ लेकर पीछे पड़े थे  । निंदा,कुत्सा प्रचार गाली गलौज से लेकर मुकदमेबाजी तक हुयी । अंग्रेज तो बस सोजे वतन की प्रतियाँ ज़ब्त कर के रह गए । यहाँ भाई लोगों ने कुछ छोड़ा नहीं । प्रेमचंद को घृणा का प्रचारक कह कर निंदित किया गया । प्रेमचंद ने ऐसे लोगों का जवाब अपनी कलम से दिया । साहित्य में घृणा का स्थान  लेख इसका नमूना है।
अब बहस गांधीवाद और मार्क्सवाद के बीच हो रही है । कुछ लोग उन्हें कम्युनिष्ट तो  कुछ गांधीवादी साबित करने मेँ  लगे हुये हैं , कुछ आर्य  समाजी । प्रेमचंद की जन्मकुंडली खगाली जा रही है । वे कब किससे मिले , कब किस सभा मेँ  गए ,किन किन सभाओं की सदारत की । किन किन बैंकों मेँ  खाता था ,खातों मे पैसा कितना था । गोदान के होरी की तरह उन्होंने कब सूद पर पैसे चलाये आदि आदि ॰।
इधर एक तर्क यह चल पड़ा है कि  “अमुक  लेखक को पढ़ने समझने मेँ  मैंने सारा जीवन लगा दिया इसलिए उसके बारे में मेरा ही फैसला  अंतिम  है” । कमल किशोर गोयनका कहते फिरते हैं कि मैंने प्रेमचंद की सेवा मेँ अपना जीवन लगा दिया इसलिए प्रेमचंद के बारे मेँ फैसला करने का अधिकार मेरा है । बाकी लोग जो तीन –तेरह (यह प्रयोग उनका है ,मुहावरा भी गलत है और प्रयोग भी )रचनाओं के आधार पर प्रेमचंद के बारे मेँ  राय देते हैं वह सिरे से गलत है । यह अलग बात है कि गोयनका की  टिप्पणियां भी उन्हीं  तीन –तेरह रचनाओं पर ही आधारित होती हैं । और वे जब कुछ कम चर्चित कहानियों का हवाला देते हैं तो अजीबो - गरीब निष्कर्ष निकालते हैं । 31 जुलाई को जनसत्ता मेँ  प्रकाशित अपनी टिप्पणी मेँ वे गमी और कानूनी कुमार कहानियों को परिवार नियोजन की  समस्या की कहानी   बताते हैं । गमी कहानी तो मुझे किसी संग्रह मेँ मिली नहीं ,लेकिन 1929 मेँ माधुरी मेँ  प्रकाशित कानूनी कुमार कहानी मेरी पढ़ी हुयी थी ।   यह  कहानी प्रेमचंद की अद्भुत व्यंग्य क्षमता का उदाहरण है । व्यंग्य की धार कहानी की पहली पंक्ति से ही फूट पड़ती है।   प्रेमचंद कहानी के प्रमुख पात्र का चित्र यों खींचते हैं -“मि0 कानूनी कुमार, एमएलए अपने ऑफिस मेँ समाचार पत्रों ,पत्रिकाओं और रिपोर्टों का एक ढेर लिए बैठे  हैं । देश की चिंताओं मेँ उनकी देह स्थूल हो गयी है ;सदैव देशोद्धार की फिक्र मेँ  पड़े रहते हैं  कानूनी कुमार को घर बैठे जो समस्याएँ सूझती हैं उनके लिए वे कानून का मसौदा तैयार करने लग जाते हैं। मजे की बात यह है कि वे कोई मसौदा तैयार भी नहीं कर पाते । प्रेमचंद इस कहानी मेँ ऐसे फर्जी देशोद्धारकों पर व्यंग्य  करते हैं ।  इसे प्रेमचंद को गांधीवादी या मार्क्सवादी कहे बगैर भी समझा जा सकता है । अब जीवन भर की उस महान साधना का क्या कीजिएगा जो इस कहानी को परिवार नियोजन की कहानी बताए । गोयनका जी को प्रेमचंद की बालक कहानी में व्यक्त यौन  नैतिकता और आधुनिकता भी अकल्पनीय लगती है ।
जिन लोगों ने भिखारी ठाकुर का नाटक “गबरघिचोर” देखा या पढ़ा होगा उन्हें गोयनका जी की तरह आश्चर्य नहीं होगा ।नाटक का एक पात्र गलीज कलकत्ता कमाने गया है । इस बीच गलीज की पत्नी का संबंध गड़बड़ी से हो जाता है । इसी संपर्क से गबरघिचोर पैदा होता है । नाटक में गलीज की पत्नी गबरघिचोर पर अपना हक़ साबित करने के लिए दिलचस्प तर्क देती है-मेरे पास दूध है अगर मैंने दही  जमाने के लिए किसी से जोरन ले लिया तो क्या दही उसका हो जाएगा । यह ऐसी यौन नैतिकता है जो भारतीय समाज की बहुस्तरीय संरचना मे मौजूद है ।  भारत का जीवन बहुस्तरीय है और यहाँ कि नैतिकता के भी अनेक संस्तर हैं । भारत की आत्मा इस बहुस्तरीयता मेँ बसती  है । प्रेमचंद इस बहुस्तरीयता से परिचित हैं और इसकी कथा कहते हैं । भारतीय जीवन को मि कानूनी कुमार की तरह घर बैठे नहीं जाना जा सकता ।
इसलिए प्रेमचंद का कम्युनिस्ट पाठ अगर इकहरा है तो भारत व्याकुल पाठ भी असंगत है । प्रेमचंद के विरोधी अलग अलग वजहों से उनके विरोधी हैं ,इसी तरह प्रेमचंद के समर्थक भी अलग अलग वजहों से समर्थन कर रहे हैं । वजह साफ है जिसका जैसा चश्मा उसके  वैसे प्रेमचंद । इसमे भी कोई दिक्कत नहीं है । सबको अपने ढंग से प्रेमचंद को देखने का हक़ हासिल है । समस्या तब होती है जब आप केवल अपने खूँटे को सही साबित करने पर आमादा हों ।  
जिस तरह से यह बहस  हो रही है उसमें   प्रेमचंद ही छूटे  जा रहे हैं । प्रेमचंद  बस किनारे बैठे मुस्करा रहे हैं  कि भाई बहस से खाली होना तो कुछ मेरी भी खोज खबर ले लेना ।  प्रेमचंद की मुस्कान में बहुत गहरा  अर्थ छुपा है। ऐसा मैंने क्या लिख दिया कि सब बेचैन हैं । आखिर इस बेचैनी का सबब क्या है ?
असल में प्रेमचंद भारतीय समाज के भीतरी आलोचक हैं । वे किसी ऊंचे आसन पर बैठे उपदेशक की तरह नहीं बल्कि समाज के भीतर से समाज को देख रहे हैं । प्रेमचंद की आलोचना जड़ मानसिकता का मुंह चिढ़ाती है और  सामान्य मनुष्य को प्रेरित और प्रभावित करती है ।  हर वो विचार  जो मनुष्य को बेहतर बना सकता है प्रेमचंद को भाता है । बक़ौल गालिब –चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेजरौ  के साथ /पहचानता नहीं हूँ ,अभी राहबर को मैं। 
अगर वे कभी आर्य समाज के निकट गए तो इसलिए कि एक दौर में आर्य समाज ने हिन्दू समाज की संकीर्णताओं पर प्रहार किया था । गांधी की पुकार में उन्हें भारतीय समाज की मुक्ति की आहट सुनाई पड़ रही थी ।प्रेमचंद  अंबेडकर की प्रशंसा इसलिए करते हैं कि वे हिन्दू समाज के जड़ बंधनो को काटकर दलितों के लिए  मुक्ति- मार्ग प्रशस्त कर रहे थे । इसी तरह प्रेमचंद ने  प्रगतिशील लेखक संघ की सदारत करना स्वीकार  किया तो इसलिए कि उन्हें लगा कि यह संगठन सौंदर्य के मानदंड में बदलाव करके भारत की सांस्कृतिक चेतना को उन्नत करेगा । अपने उद्बोधन में जब प्रेमचंद ने कहा कि साहित्यकार स्वभाव से ही प्रगतिशील होता है तो वे अपने स्वभाव का ही परिचय दे रहे थे । प्रेमचंद  जड़ों से जुड़े हुये थे लेकिन जड़ नहीं थे । वे हर  तरह की जड़ता के विरोधी थे ।  उन्हें  इस या उस जड़ता से समझने समझाने की कोशिश बेकार । प्रेमचंद को प्रेमचंद ही रहने दें । इसी रूप वे हमें  और हमारे समाज को आगे ले जाने में सक्षम हैं ।

राजेंद्र यादव के निधन पर शोक संवेदना





आज की सुबह राजेंद्र यादव के निधन की खबर से शुरू हुयी ।
 नयी कहानी के स्तंभों मे से एक राजेंद्र यादव ने 1986 से हंस पत्रिका का सम्पादन अपने हाथ मे लिया और तब से निरंतर हंस निकालते  रहे । हंस का अनवरत प्रकाशन हिमालय जैसे संकल्प की मांग करता है ।राजेंद्र यादव के आलोचकों का कहना था कि कहानीकार के रूप में चुक जाने के बाद उन्होने हंस का प्रकाशन शुरू किया ।यह ठीक है कि हंस के प्रकाशन से राजेंद्र यादव का अपना लेखन काफी  प्रभावित हुआ लेकिन नयी रचनाशीलता को विकसित ,प्रोत्साहित और स्थापित करने में हंस की  भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है ।तीन दशकों की  सुदीर्घ यात्रा मे हंस   ने कम से कम कथाकारों की  तीन पीढ़ियों के विकास में योगदान दिया ।
हंस पत्रिका जब शुरू हो रही थी तब एक एक कर बड़े घरानो से निकालने वाली साहित्यिक पत्रिकाएँ  बंद हो रही थीं । धर्मयुग ,साप्ताहिक हिंदुस्तान ,दिनमान ही नहीं कहानियों की  पत्रिका सारिका भी बंद हो चली थी ।इन सभी पत्रिकाओं की जगह  अकेले हंस ने भरी । सच बात तो ये है कि हंस ने केवल खाली जगह नहीं भरी बल्कि अपने लिए अलग से जगह बनाई । राजेन्द्र यादव ने हिन्दी मे मौजूद सामंती चेतना से लगातार संघर्ष किया । हंस ने स्त्री और दलित लेखन को प्रकाशित और स्थापित ही नहीं किया बल्कि  इसके लिए  एक आंदोलन जैसा चलाया । राजेंद्र यादव ने यह करके साहित्य के दायरे को विस्तारित ही नहीं  किया बल्कि उसके सरोकारों  को भी फिर से परिभाषित किया  । 

मुझे याद आता है कि 90 में एक बार वे गोरखपुर आए थे ।गोरखपुर विश्वविद्यालय में तब प्रेमचंद पीठ की  स्थापना हुयी हुयी थी । प्रेमचंद पीठ के निदेशक प्रोफ परमानद श्रीवास्तव ने 'प्रेमचंद और भारतीय उपन्यास "पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी  आयोजित की थी । इस संगोष्ठी में राजेंद्र यादव और नामवर सिंह दोनों उपस्थित थे । दोनों में तीखी नोकझोक हुयी थी । तब नामवर सिंह ने कथासाहित्य को मृत या मरणासन्न कह दिया था । इस पर राजेंद्र यादव काफी खफा हुये थे । संगोष्ठी मे दोनों एक दूसरे पर खड्गहस्त  थे और बाद में एक साथ बैठे और दोस्तों की तरह बात कर रहे थे । इस पूरे वाकये पर  कुछ लोगों ने भगवती चरण वर्मा की कहानी के  दो बाँको  को याद किया । असल मे पिछड़ी सामंती चेतना के लिए  वैचारिक असहमति और व्यक्तिगत संबंध दोनों को एक साथ स्वीकार करना असंभव लग रहा था । राजेंद्र यादव जीवन भर इस सामंती चेतना से संघर्ष करते रहे ।  स्त्री लेखिकाओं के बारे मे  होने वाले प्रवादों को वे हमेशा पुरुष मन की कुंठाओ से जोड़ कर देखने के हामी थे ॥ 

...... राजेन्द्र यादव के जाने से हिन्दी साहित्य के सिगार से उठता धुंवा हमेशा के लिए खत्म हो गया लेकिन उनकी याद पिछड़ी सामंती,स्त्री और दलित विरोधी चेतना को खत्म करने की प्रेरणा देती रहेगी । 

सदानंद शाही 
निदेशक 
प्रेमचंद सहित्य संस्थान 
संपादक ,साखी 
प्रोफ  हिन्दी विभाग 
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय 
वाराणसी 

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

प्रेमचन्द साहित्य संस्थान

संक्षिप्त इतिहासः बुद्ध, गोरखनाथ और कबीर की वाणी से आन्दोलित होने वाला यह पूर्वांचल एक महान` परम्परा वाला क्षेत्र् रहा है। प्रेमचन्द इस परम्परा की अन्तिम कड़ी थे। दुभार्ग्यवा वह परम्परा किन्हीं कारणों से विच्छिन्न हो गयी। आज परिणाम यह हुआ है कि इस क्षेत्र् की सांस्क्रतिक पहचान जैसे खो गई है। उस पहचान को वापस लाने के लिये, एक प्रकार से पूवीर् उत्तार प्रदेा के सांस्क्रतिक नवजागरण को स्फुरित करने के लिये गोरखपुर में ॑प्रेमचन्द साहित्य संस्थान॔ की परिकल्पना की गयी। प्रो.सदानन्द ााही की पहल पर कुछ उत्साही युवाओं ने मिलकर १९९ में प्रेमचन्द के ऎतिहासिक आवास को उनके एक स्मृति केन्द्र के रूप में संजोते हुए उसे उसके भूगोल में सांस्क्रतिक नवजागरण का प्रतीक बनाने का सपना देखा जिसे अमृतराय, भीम साहनी, माकर्ण्डेय, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, एस. आर. किदवई जैसे अनेक साहित्यकारों एवं िाक्षाविदों का समथर्न मिला। ऎसे संस्थान कलाकारों, लेखकों के आवास को उनके स्मृति केन्द्र के रूप में सुरक्षित रखने के उदाहरण के रूप में विव में थोड़े ही हैं। प्रेमचन्द साहित्य संस्थान उन कतिपय ला?ानीय प्रयासों में से एक है। प्रेमचन्द के साहित्य में भारतीय परम्परा के श्रेयस` तत्तव को सुरक्षित रखते हुए जो आधुनिक अग्रगामी दृिट है वह अनन्य है। प्रेमचन्द साहित्य के केन्द्र में उस सामान्य जन को लाये जिसे की लगभग अद्धरताब्दी बीतने के बाद भी भारतीय समाज में केन्द्रीयता नहीं प्राप्त हो सकी थी। ॔वििाट॑ के स्थान पर ॔सामान्य॑ के सौन्दर्य को उद`?ााटित कर उन्होंने हमारे सौन्दर्य बोध को जातिवादी और सामन्ती जकड़बन्दी से मुक्त किया, उसे अधिक उन्मुक्त और उदात्ता बनाया। प्रेमचन्द का साहित्य हमारे स्व का विस्तार करता है और हमारे भीतर अपनी परम्परा के प्रति आलोचनात्मक विवेक उत्पन्न करता है। इस उदात्ता परम्परा बोध से सम्पन्न यह संस्थान आज साहित्य, संगीत और कला के जनपक्षधर विकास को समपिर्त है। निजी अनुदानों से संचालित यह संस्था समय समय पर काव्यपाठ, कहानी"पाठ, विचार गोिठयाँ और रचना प्रतियोगिताएँ आयोजित करता रहा है। प्रत्येक स्थानीय प्रयासों को राट्रीय फलक देते हुए यह प्रत्येक र्वा प्रेमचन्द जयन्ती का आयोजन करता है।

इन आयोजनों में नामवर सिंह, श्रीलाल ाुक्ल, असगर वज़ाहत, कँुवरपाल सिंह, गंगा प्रसाद विमल, राजकिाोर, प्रो. चन्द्रकला पाण्डेय पूर्व सांसद एवं सुश्री सुभािानी अली सहगल पूर्व सांसद जैसे विद्वानों के व्याख्यान हुए है। विजयदान देथा, दूधनाथ सिंह, नीलकांत सहित अनेक युवा कहानीकारों का कहानी पाठ त्र्लिोचन, केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, बोधिसत्व, क्रणमोहन झा, जितेन्द्र श्रीवास्तव, पंकज चतुवेर्दी जैसे कवियों के काव्य पाठ इसके महत्वपूर्ण आयोजन रहे हैं। संस्थान ने सन` १९९३"९४ में राहुल सांक्रत्यायन की जन्माती पर विोा आयोजन किये। सन` १९९६ में ॔दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचन्द॑ पर आयोजित राट्रीय संगोठी को राट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई। संस्थान के निदेाक प्रो. सदानन्द ााही के सम्पादकत्व में इसी नाम से प्रकािात पुस्तक ने दलित विमार् में भी कुछ अन्य महत्वपूर्ण पहलू जोड़े और पूवीर् उत्तार प्रदेा में दलित विमार् को गति और दिाा दी।

सन` १९९७ में निराला जन्माती पर ॔निराला और उत्तार औपनिवेिाक समय॑ विाय पर एक अत्यन्त महत्वपूर्ण राट्रीय संगोठी आयोजित की गई, जिसमंे हिन्दी तथा अनेक भारतीय भाााओं के महत्वपूर्ण रचनाकारों की हिस्सेदारी थी।विख्यात कवि त्र्लिोचन सहित अनेक संस्क्रति कर्मियों को संस्थान समय समय पर सम्मानित करता रहा है। जिसमें पद`मविभूाण तीजनबाई भी ाामिल हैं।कबीर के ६ वीं जयन्र्तीवा में कबीर पर अनेक आयोजन किये गए जिनमें ॔कबीर का अनभै साँच॑ विाय पर नामवर सिंह का प्रसिद्ध व्याख्यान ाामिल है। कबीर पर एक दिवसीय राट्रीय संगोठी भी आयोजित की गई। प्रेमचंद की १२५ वीं जयन्ती र्वा में संस्थान ने पूरे साल आयोजन किये। इस आयोजन का आरम्भ नामवर सिंह के प्रसिद्ध व्याख्यान ॔प्रेमचन्द पुनः पुनः॑ से गोरखपुर में हुआ। ॔प्रेमचन्द और स्त्र्ी विमार्॑ ाीार्क राट्रीय संगोठी मंे प्रो. चन्द्रकला पाण्डे सांसद, राज्यसभा सुभािानी अली सहगल पूर्व सांसद, प्रो. पी. एन. सिंह, प्रो. र?ाुवंा मणि आदि ने हिस्सेदारी की। प्रेमचन्द के १२५ वें जन्म र्वा पर संस्थान के आयोजनों में सबसे महत्वपूर्ण आयोजन ॑गोदान को फिर से पढ़ते हुए॔ ाीार्क अन्तरार्ट्रीय संगोठी ५ से ८ नवम्बर २५ थी। प्रेमचन्द की सबसे महत्वपूर्ण और कालजयी क्रति गोदान के बहाने प्रेमचन्द पर समकालीन सन्दभोंर् में बातचीत हुई। प्रेमचन्द संस्थान की साहित्य दृिट में एक ओर हिन्दी प्रदेा की सांस्क्रतिक चिंताएँ हंै, तो दूसरी तरफ वैिवक सांस्क्रतिक चिंताएँ है। वैिवक सभ्यता विमार् को ख्याल में रखते हुए संस्थान ने ॔वी.एस. नॉयपाल का भारत॔ और ॔एडवडर् सईद और समकालीन बौद्धिक विमार्॑ विायक महत्वपूर्ण संगोिठयाँ आयोजित कीं हैं। साहित्यिक और अकादमिक बहसों की साथर्कता उनके सामान्य जन तक पहुचने में है।

इसी दृिट से संस्थान प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह के संपादन में महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र्किा ॔साखी॑ का प्रकाान करता है। इसके अतिरिक्त ॑कर्मभूमि॔ नामक स्मारिका तथा प्रेमचन्द ?ार"?ार में योजना के तहत अनेक प्रकाान योजनाएं भी संचालित करता है। वतर्मान वैिवक सांस्क्रतिक परिदृय में स्त्र्ी विमार् एक महत्वपूर्ण मुद`दा है। महादेवी वमार् हिन्दी प्रदेा की ऎसी रचनाकार हैं जिन्होने स्त्र्ी की वेदना को स्वर दिया है और उसकी मुक्ति का पथ प्रास्त किया है। संस्थान महादेवी के जन्माती र्वा में उनके साहित्य का पुनर्मूल्यांकन स्त्र्ी मुक्ति के भारतीय प्रतीक के रूप में करने का प्रस्ताव करता है। इटली के तूरीनो विवविघालय से प्रेमचन्द साहित्य संस्थान का विगत तीन"चार वाोर्ं से अनुबन्ध है। वहाँ के छात्र् हिन्दी सीखने तथा कबीर और प्रेमचन्द का विोा अध्ययन करने र्वा मेंं दो बार संस्थान आते है। इस तरह प्रेमचन्द संस्थान की सक्रियता के स्थानीय, राट्रीय एवं अन्तरार्ट्रीय आयाम हैं।

उद`देय एवं कार्यः सामाजिक परिवतर्न एवम` विकास में साहित्य की वििाट भूमिका होती है। प्रेमचन्द साहित्य को जीवन की आलोचना मानते थे। जीवन की सकारात्मक आलोचना से साहित्य जीवन और समाज के परिवतर्न तथा विकास में अपनी भूमिका अदा करता है। साहित्य की इस भूमिका को संभव बनाने के लिए प्रेमचन्द साहित्य संस्थान की स्थापना की गयी है। संस्थान का उद`देय प्रेमचन्द और उनकी विचारधारा के समस्त सजर्नात्मक साहित्य का अध्ययन, मूल्यांकन, अनुसंधान तथा प्रचार"प्रसार करना है।

ाोध केन्द्रः संस्थान एक ऎसा केन्द्र होगा जिसमें देा विदेा के ाोधाथीर् प्रेमचन्द और उनकी विचारधारा के साहित्य का विोा अध्ययन विलेाण तथा अनुसंधान कर सकें। प्रेमचन्द भारत की जातीय चेतना के रचनाकार थे, इस रूप में प्रेमचन्द ने केवल हिन्दी साहित्य नही, अपितु, समूचे भारतीय साहित्य को प्रभावित किया है। इस ाोध केन्द्र का प्रयास होगा कि समूचे भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में प्रेमचन्द का अध्ययन और सम्यक` मूल्यांकन संभव हो सके। स्वाधीनता आन्दोलन और उसके समानान्तर चलने वाले किसान आन्दोलन की गहरी छाप प्रेमचन्द की रचनाओं मंे दिखाई पड़ती है। इस रूप में प्रेमचन्द के साहित्य पर ाोध के क्रम में स्वतंत्र्ता पूर्व होने वाले आन्दोलनों के प्रक्रति की छान"बीन भी संभव हो सकेगी।

प्रकाानः प्रेमचन्द साहित्य संस्थान ॔साखी॑ त्र्ैमासिक पत्र्किा का प्रकाान कर रहा है। संस्थान के उद`देयों को साकार करने तथा पाठकों की सांस्क्रतिक चेतना को उन्नत करने हेतु ॔साखी॑ नामक पत्र्किा प्रकािात की जा रही है। सुप्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह इसके प्रधान सम्पादक हैं।

पुस्तकालयः प्रेमचन्द साहित्य संस्थान एक नियमित पुस्तकालय का संचालन कर रहा है। पुस्तकालय में प्रेमचन्द की परम्परा के श्रेठ साहित्य का संकलन किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त वैचारिक और सामाजिक विायों से संबंधित श्रेठ चिन्तनपरक साहित्य का भी संकलन किया जा रहा है। संस्थान के पुस्तकालय में बच्चों के लिए एक अनुभाग ाुरू किया गया है। इसके अतिरिक्त वैचारिक और सामाजिक चेतना विकसित करने के लिए यह पुस्तकालय कार्य कर रहा है। १४ माचर् १९९६ से यह पुस्तकालय अब प्रेमचन्द पाकर् स्थित ऎतिहासिक प्रेमचन्द निकेतन में हैं जहाँ नार्मल स्कूल में अध्यापन करते हुए प्रेमचन्द १९१६ से १९२१ तक रहे थे।

पाठक सेवाः संस्थान श्रेठ रचनात्मक साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए पाठक सेवा संचालित कर रहा हैं।

मासिक रचना गोठीः नये रचनाकारों को प्रोत्साहित करने तथा पुराने रचनाकारों की नयी क्रतियों से परिचित होने के लिए संस्थान मासिक रचना गोिठयों का आयोजन कर रहा है। इसके अतिरिक्त संस्थान कुछ महत्वपूर्ण कवियों और चिन्तकों की जयन्तियों एवं पुण्यतिथियों पर आयोजन करके उनके विचारों का प्रचार प्रसार करता है।

प्रेमचन्द साहित्य पुरस्कारः संस्थान प्रेमचन्द की साहित्य परम्परा को प्रोत्साहन देने के लिए साधन उपलब्ध होते ही हर दूसरे र्वा प्रेमचन्द की परम्परा के श्रेठ भारतीय लेखक को प्रेमचन्द साहित्य पुरस्कार से सम्मानित करेगा।

अध्येता वृतिः आथिर्क स्रोत उपलब्ध होने पर संस्थान प्रेमचन्द सम्बधी ाोध कार्य को प्रोत्साहित करने के लिए अध्येतावृत्तिायां भी उपलब्ध कराएगा।

प्रेमचन्द स्मृतिकक्षः संस्थान प्रेमचन्द स्मृतिकक्ष के रूप में एक संग्रहालय स्थापित करने का प्रयास कर रहा हैंं। जिसमें प्रेमचन्द की पाण्डुलिपियाँ, पत्र्, उपयोग की गयी सामग्री तथा दुलर्भ चित्र् आदि जुटाये जा रहे हंै।

अतिथि गृहः संस्थान एक सुसज्जित अतिथिगृह की व्यवस्था करेगा जिसमें बाहर से आने वाले ाोधाथिर्यों को आवास की सुविधा दी जा सके।

प्रेमचन्द विवदृिट सम्पन्न लेखक हैं। उनके पाठक और अध्येता पूरी दुनिया में फैले हुए है। इस संस्थान के माध्यम से प्रेमचन्द और उनकी परम्परा के साहित्य पर केन्दि्रत अध्ययन विलेाण"संवाद प्रकाान आदि को सुव्यवस्थित योजना के अनुरूप वित्तीय सहायता राट्रीय, प्रादेिाक तथा स्थानीय सभी स्तरों पर अपेक्षित होगी। हम जनता एवं प्राासन दोनों को इस महान आयोजन में भागीदार बनाना चाहते हैं।

आप प्रेमचन्द साहित्य संस्थान का सहयोग कर सकते हैं।

१. संस्थान की गतिविधियों में भागीदारी करके।
२. संस्थान की पत्र्किा ॔साखी॑ तथा संस्थान पुस्तकालय का वािार्क/आजीवन सदस्यता ग्रहण करके।
३. संस्थान पुस्तकालय के लिए आथिर्क तथा पुस्तकीय सहयोग देकर। विोाः पुस्तकालय को ५/का आथिर्क सहयोग देने पर दाता अथवा उसके द्वारा प्रस्तावित नाम पर पुस्तक खण्ड स्थापित करने की व्यवस्था है। इस क्रम में सदााय िावरत्न लाल खण्ड स्थापित किया जा चुका है।
४. संस्थान की गतिविधियों के संचालन के लिए सहयोग हेतु संकल्प पत्र् भर कर।
५. संस्थान द्वारा प्रस्तावित ॔प्रेमचन्द स्मृति कक्ष॑ के लिए प्रेमचन्द की पाण्डुलिपि, चित्र् उपयोग की गई सामग्री तथा इस सम्बन्ध मंे सुझाव भेजकर।
६. संस्थान की गतिविधियों में सहभागिता तथा सहयोग के लिए लोगों को प्रेरित करके। आपके सक्रिय सहयोग एवं सुझाव की प्रतीक्षा रहेगी।