शहर गोरखपुर के पास गर्व करने के लिए अनेक बातें हैं.अपनी यात्राओं के क्रम में बुद्ध जरूर गुजरे होंगे गोरखपुर से.गोरखनाथ ने अपनी योग साधना का केंद्र बनाया ही था गोरखपुर को .बनारस से मगहर जिस रास्ते से गए हों कबीर बीच में गोरखपुर जरूर मिला होगा .गांधी गोरखपुर आये ही थे .आधुनिक हिंदी के निर्माताओं में प्रमुख प्रेमचंद के जीवन के अनेक पड़ावों का साक्षी रहा है यह शहर .बचपन में प्रेमचंद के भीतर साहित्यिक संस्कार विकसित करने में इस शहर की भूमिका रही है .किस्सागोई का चस्का प्रेमचंद को यहीं लगा .आगे चलकर वे अपनी नौकरी के सिलसिले में गोरखपुर आये .१९१६ से १९२१ तक का समय प्रेमचंद के जीवन का सबसे फैसलाकुन दौर था.इसी दौर में वे हिंदी गद्य का खजाना भरने की ओर मुखातिब हुए.यहीं उन्हें मन्नन द्विवेदी गजपुरी और फ़िराक गोरखपुरी जैसे दोस्त मिले. स्वदेश के संपादक दशरथ प्रसाद द्विवेदी और महावीर प्रसाद पोद्दार जैसा प्रकाशक मिला . प्रेमचंद की कथायात्रा के अनेक पात्र भी यहीं मिले.गोरखपुर छोड़ने के बाद भी प्रेमचंद के जीवन में गोरखपुर बना रहा .कहने का मतलब यह कि कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद के जीवन के बेहद अहम् अध्याय शहर गोरखपुर ने रचे.गांधी के आह्वान पर सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर पूर्णकालिक लेखक बनने का निर्णय भी उन्होंने यहीं लिया था और स्वाधीनता आन्दोलन में कूद पड़े .
यह सही है कि गोरखपुर के रहवासी युवाओं के मन में जब साहित्य का अंखुआ फूटता है वे प्रेमचंद की इस उपस्थिति से प्रेरणा लेते हैं .कुछ साधनहीन संस्थाएं अपने सृजन संकल्प के सहारे प्रेमचंद को निरंतर याद करती रहती हैं और प्रेमचंद के विचारों की मशाल जलाए रखती हैं. अपने इतिहास के इस स्वर्णिम अध्याय पर शहर कितना फख्र करता है -.इसका जायजा लेने के लिए दो प्रसंगों की चर्चा मौजूं होगी. प्रेमचंद के जन्मशती वर्ष में तब के मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने विश्वविद्यालय में प्रेमचंद पीठ स्थापित करने की बात कही थी. आगे चलकर तत्कालीन हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर शांता सिंह और सुप्रसिद्ध आलोचक परमानद श्रीवास्तव के प्रयत्नों से १९९० में गोरखपुर विश्वविद्यलय में प्रेमचंद पीठ स्थापित हुई. उस पर परमानंद श्रीवास्तव नियुक्त हुए. उनके कार्यकाल तक प्रेमचंद पीठ सक्रिय रही. बड़े और महत्वपूर्ण आयोजन हुए. १९९० में प्रेमचंद और भारतीय उपन्यास ऐसे ही आयोजनों में से एक था .१९९५ में परमानद श्रीवास्तव के अवकाश ग्रहण करते ही प्रेमचंद पीठ को भी ग्रहण लग गया.गोरखपुर विश्वविद्यालय ने जाने क्यों अपने इस गौरवशाली अध्याय को धुल पुछ जाने दिया .कुछ लोगों का मानना है कि गोरखपुर विश्वविद्यालय की सांस्कृतिक चित्ति इतनी उदार और समावेशी नहीं है जो प्रेमचंद के सामाजिक विचारों का ताप सह सके.कयास यह भी है कि परमानन्द जी की प्रसिद्धि और लोकप्रियता से खुन्नस का खामियाजा प्रेमचंद पीठ को भुगतना पड़ा. वजह जो भी हो प्रेमचंद पीठ का यह हश्र गोरखपुर विश्वविद्यालय की छवि पर प्रश्नवाचक की तरह बना रहेगा.दूसरा प्रसंग हाल ही में घटित हुआ प्रेमचंद प्रतिमा विवाद है.बीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में प्रेमचंद की स्मृति को सुरक्षित करने के लिए प्रेमचंद पार्क बना..उस परिसर में प्रेमचंद की एक प्रतिमा पहले से ही लगी हुयी थी ,उसे हटा कर प्रेमचंद की आदमकद प्रतिमा लगी.संगमरमर की बनी आवक्ष प्रतिमा जनसहयोग से लगी थी .ट्रेनिंग स्कूल के प्रिंसिपल रहे रमाशंकर शाही के आमंत्रण पर प्रतिमा के अनावरण के लिए प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी आई थीं.१९९६ में प्रेमचंद साहित्य संस्थान ने प्रेमचंद निकेतन से प्रेमचंद पुस्तकालय और साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियाँ शुरू की . तब इतिहासकार प्रो हरिशंकर श्रीवास्तव की प्रेरणा से इस प्रतिमा की तलाश शुरू हुयी .दो वर्षों के निरंतर तलाश के बाद प्रतिमा सीमेंट की बोरियों नीचे दबी क्षतिग्रस्त स्थिति में मिली . प्रतिमा को सम्मान पूर्वक संस्थान के संग्रहालय में रख दिया गया.इस उम्मीद में कि अनुकूल परिस्थिति आने पर प्रतिमा को ससम्मान समुचित स्थान पर स्थापित किया जाएगा. १६वीं लोकसभा के चुनाव के समय आचार संहिता लगी हुयी थी. इसी दौरान जिले के एक अधिकारी को इल्हाम हुआ कि प्रेमचंद की प्रतिमा मुक्ति के लिए छटपटा रही है.उन्होंने निहायत अहमकाना ढंग से पुस्तकालय का ताला तोड़कर पार्क के बाहर बने गोलंबर के नीचे जैसे तैसे प्रतिमा लगा दी . यह नहीं देखा कि वह जगह प्रतिमा के उपयुक्त है या नहीं..बाद में उनका बयान आया कि मेरा कर्तव्य बनता है अपनी जाति के लेखक की प्रतिमा का उद्धार करू.आश्चर्य यह हुआ की बाद में पूरे मामले को जातीय रंग देने की कोशिश भी की गयी. जिला प्रशासन ने इसे अहमकाना हरकत मानते हुए आचार संहिता के बाद निस्तारण करने की बात की.पर अब भी प्रतिमा वैसे ही पड़ी हुयी है. उपेक्षित और अनाद्रित.
विडम्बना देखिये कि जीवन भर जन्म के संस्कारों के विरुद्ध संघर्ष करने वाले लेखक को जन्म के संस्कारों की दुतरफा मार झेलनी पड रही है. गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्रेमचंद पीठ की विदाई इसलिए हुयी कि वे वर्ण आधारित समाज के विरोधी थे . प्रेमचंद प्रतिमा विवाद इसलिए हुआ कि उन्हें एक खास जाति से जोड़कर देखने का संकीर्ण रवैया अपनाया गया .सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता याद आ रही है –सर झुका आओ बोलीं भीतर की दीवारें /सर झुका आओ बोला बाहर का आसमान /दोनों ने मुझे छोटा करना चाहा/बुरा किया मैंने जो ये घर बनाया .दोनों तरह के जन्म के संस्कार प्रेमचंद को छोटा बनाने में लगे हुए हैं .और प्रेमचंद खड़े मुस्करा रहे है.कबीर की तरह –हम न मरें मरिहें संसारा .
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