प्रेमचंद का नाम हिंदी
के उन महबूब लेखकों में शुमार हैं जिनकी पंहुच केवल साहित्य समाज तक महदूद नहीं है.वे हिंदी-उर्दू भाषी समाज के वृहत्तर दायरे में याद किये जाते
हैं .हिंदी और उर्दू दोनों के साहित्य में प्रेमचंद का योगदान युग निर्माता जैसा
है, इसलिए वहां तो वे अपनी साहित्यिक खूबियों के नाते याद किये जाते हैं .जिस
आधुनिक हिंदी का हम आज प्रयोग कर रहे हैं उसे यदि प्रेमचंद का हाथ न मिला होता तो
वह कैसी होती यह कल्पना करना मुश्किल होता
.प्रेमचंद के आगमन से हिंदी गद्य अचानक इतना विकसित और टकसाली हो गया कि वह दुनिया
की अनेक समर्थ भाषाओँ के साथ होड़ लेने लगा .प्रेमचंद ने यह कमाल सादगी से हासिल
किया .उनका रचनात्मक लेखन हमें यह सिखाता है कि सादगी में सौन्दर्य कैसे पैदा किया
जा सकता है .प्रेमचंद की कलम हमें साधारण के सौन्दर्य को देखने की आँख देती है.प्रेमचंद
की लेखनी के स्पर्श से चिमटा जैसी साधारण वस्तु भी सुन्दर लगने लगती है .ईदगाह
कहानी के हामिद के हाथ से एक बार चिमटा लेकर देखने के लिए उसके हमउम्र साथियों का
ही नहीं हमारा मन भी मचल उठता है .प्रेमचंद के रचना संसार में हमारी भेट जिन लोगों
से होती है वे हमारे रोजमर्रा के जीवन के ही पात्र होते हैं .ऐसे पात्र जिन्हें हम
अति परिचय के नाते जानते हुए भी नहीं
पहचान पाते हैं ,उन्हें पहचानने में प्रेमचंद हमारी मदद करते हैं . पंच परमेश्वर
के जुम्मन शेख और अलगू चौधरी ,बूढी काकी के बुद्धिराम, नशा कहानी के बीर या फिर
स्वयं बड़े भाई साहेब जैसे अनेक पात्र हमारी अपनी दुनिया में मिल जाया करते हैं.
मुक्तिबोध न
प्रेमचंद को आत्मा का शिल्पी बताया था. आत्मा पर संस्कारों की गर्द जम जाया करती है
.प्रेमचंद उस गर्द और गुबार को साफ करके आत्मा को गढ़ते हैं. भारत जैसे प्राचीन देश में परम्पराएं
और संस्कार बेहद जटिल और उलझाऊ हैं . जाति और वर्ण के संस्कार हैं तो कहीं स्त्री और
पुरुष के .गरीबी –अमीरी ,शिक्षित अशिक्षित से लेकर सभ्य-असभ्य तक के अनेक सवाल संस्कारों
और परम्पराओं से ही उपजते हैं .संस्कार और परम्पराएं बद्धमूल होकर समाज को कुंठित
और गतिहीन बना देती हैं .ऐसे में समाज के भीतर से आलोचक पैदा होते हैं जो परंपरा के शुभ तत्व को पहचान कर आगे ले जाते
हैं तथा जड़ और अशुभ का साहस के साथ खंडन करते हैं .कबीर और गाँधी हमारे समाज
के ऐसे ही आलोचक थे . प्रेमचंद भी इसी कड़ी में भारतीय
समाज के भीतरी आलोचक हैं । प्रेमचंद साहित्य को जीवन की आलोचना मानते हैं.यह वही
कह सकता है जो जीवन से बहुत गहरे जुड़ा हो .प्रेमचंद
जीवन से बहुत गहरे जुड़े हुए थे .जीवन के विविध रंग ही नहीं उसकी विसंगतियां भी
प्रेमचंद के सामने प्रकट थीं ,प्रेमचंद ने उनकी बेलौस आलोचना की है. आलोचना करते
हुए प्रेमचंद कभी भी ऊंचे आसन पर बैठे उपदेशक नहीं लगते. वे समाज के भीतर से समाज को देख रहे
हैं । इसीलिए उनकी आलोचना मर्म को छूती है .प्रेमचंद की आलोचना एक तरफ जड़ मानसिकता
को उद्वेलित करती है तो दूसरी तरफ सामान्य
मनुष्य को प्रेरित और प्रभावित करती है ।
प्रेमचंद की पहली लड़ाई जन्म के संस्कारों से
है .क्या हम जन्म के संस्कारों से ऊपर उठ सकते हैं ?क्या हमारी शिक्षा दीक्षा हमें
जन्म के संस्कारों से मुक्त कर सकती है ?प्रेमचंद की एक अपेक्षाकृत कम पढ़ी गयी
कहानी है ‘आगा पीछा’,जिसमे प्रेमचंद ने सवाल उठाया है –‘क्या कोई औषधि नहीं जो
जन्म के संस्कारों को ख़त्म कर दे’ .कहानी का नायक भगत राम दलित है . वह स्वयं जन्म के नाते समाज में
उपेक्षा और घृणा का शिकार है .फिर भी वह जहर खाकर जान दे देता है,परअपनी प्रेमिका
श्रद्धा जो वेश्या की पुत्री है , से
विवाह करने को तैयार नहीं हो पाता.प्रेम और जन्म के संस्कार के इस द्वंद्व में प्रेमचंद
संस्कार की जड़ता को उजागर करते हैं और दिखाते हैं कि जन्म का संस्कार किस तरह प्रेम और
मनुष्यता का गला घोंट देते हैं. ‘पशु से मनुष्य’ कहानी में प्रेमचंद जड़ संस्कारों
की चूल हिलाते नजर आते हैं .डॉ मेहता बार एट ला मामूली गलती पर अपने माली पर कोड़े
बरसाते हैं और उसे नौकरी से निकाल देते हैं जबकि स्वयं बड़े बड़े अपराध करते हैं
.बाद में डॉ मेहता माली को प्रेमशंकर के सहकारी बागवानी में काम करते और खुशहाल
देखकर चिढ जाते हैं और उसकी शिकायत करते हैं .शिकायत का असर होता न देखकर वे जाते जाते प्रेमशंकर से कहते हैं –‘इससे
होशियार रहिएगा .यूजेनिक्स (सुप्रजनन शास्त्र)अभी तक किसी ऐसे प्रयोग का आविष्कार
नहीं कर सका है ,जो जन्म के संस्कारों को मिटा दे!’
जन्म के संस्कार के नाम पर मनुष्य को मनुष्य
से हीन बनाने वाली व्यवस्था प्रेमचंद के निशाने पर रहती है.यह
जन्म का ही संस्कार है जो श्रम को हेय और त्याज्य बताता है . सदगति कहानी में लकड़ी
की एक बड़ी कडियल गांठ है जिसे पंडित घासीराम
दुखी को फाड़ने के लिए देते हैं. उस गांठ पर दुखी जी जान लगाकर चोट करता है लेकिन
उसे फाड़ नहीं पाता.लकड़ी को फाड़ने के चक्कर में अपनी जान जरूर गँवा देता है.कई बार
मुझे सदगति कहानी की यह गांठ जन्म के संस्कारों में बंधे भारतीय समाज के रूपक की
तरह लगती है .यह जड़ सामाजिक संस्कारों की ही गाँठ है जिस पर प्रेमचंद निरंतर
प्रहार करते हैं . दूध का दाम कहानी में भूंगी महेशनाथ से कहती है –‘मालिक,भंगी तो
बड़े बड़ों को आदमी बनाते हैं, उन्हें कोई
क्या आदमी बनाएगा’ .अपनी एक कहानी ‘सभ्यता
का रहस्य’ में प्रेमचंद कहते हैं कि ‘सभ्यता केवल ऐब को हुनर के साथ करने का नाम है
.आप बुरे से बुरा काम करें ,लेकिन अगर आप उस पर परदा डाल सकते हैं तो आप सभ्य हैं
,सज्जन हैं ,जेंटिलमैंन हैं’ .प्रेमचंद मनुष्य
की गरिमा को किसी भी तरह ठेस पहुँचाने वाली सभ्यता के हर ढकोसले को उजागर करते हैं
और पाखण्ड के समाजशास्त्र को बेपर्दा करते हैं. प्रेमचंद हमें यह भी बताते हैं कि महाजनी
सभ्यता के साथ आया ‘समय ही धन है’
जैसा जुमला आदमीयत को ख़त्म कर रहा है. यहाँ
प्रेमचंद लोककवि भिखारी ठाकुर की याद दिलाते हैं –‘कहत भिखारी भिखार होई गइलीं
दौलत बहुत कमा के’(भिखारी कहते हैं कि
बहुत दौलत कमाने के चक्कर में हम आदमीयत के मामले में बेहद दरिद्र हो जाते
है.)
हर वो विचार
हर वो कार्य जो मनुष्य को बेहतर बना सकता है प्रेमचंद को भाता है । अगर वे
कभी आर्य समाज के निकट गए तो इसलिए कि एक दौर में आर्य समाज ने हिन्दू समाज की
संकीर्णताओं पर प्रहार किया था । गांधी की पुकार में उन्हें भारतीय समाज की मुक्ति
की आहट सुनाई पड़ रही थी, इसीलिए वे गांधी के पास गए . ।प्रेमचंद को अंबेडकर इसलिए पसंद
थे कि वे(अम्बेडकर) हिन्दू समाज के जड़ बंधनों को काटकर दलितों के लिए मुक्ति- मार्ग प्रशस्त कर रहे थे । इसी तरह
प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ की सदारत
करना इसलिए स्वीकार किया कि उन्हें लगा कि
यह संगठन सौंदर्य के मानदंड में बदलाव करके भारत की सांस्कृतिक चेतना को उन्नत
करेगा । अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में जब
प्रेमचंद ने कहा कि साहित्यकार स्वभाव से ही प्रगतिशील होता है तो वे अपने स्वभाव
का ही परिचय दे रहे थे । प्रेमचंद के स्व-भाव
का बयान ग़ालिब के इस शेर में बखूबी होता है-चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज
रौ के साथ /पहचानता नहीं हूँ ,अभी राहबर को मैं।
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