मंगलवार, 11 मार्च 2014

राजेंद्र यादव के निधन पर शोक संवेदना





आज की सुबह राजेंद्र यादव के निधन की खबर से शुरू हुयी ।
 नयी कहानी के स्तंभों मे से एक राजेंद्र यादव ने 1986 से हंस पत्रिका का सम्पादन अपने हाथ मे लिया और तब से निरंतर हंस निकालते  रहे । हंस का अनवरत प्रकाशन हिमालय जैसे संकल्प की मांग करता है ।राजेंद्र यादव के आलोचकों का कहना था कि कहानीकार के रूप में चुक जाने के बाद उन्होने हंस का प्रकाशन शुरू किया ।यह ठीक है कि हंस के प्रकाशन से राजेंद्र यादव का अपना लेखन काफी  प्रभावित हुआ लेकिन नयी रचनाशीलता को विकसित ,प्रोत्साहित और स्थापित करने में हंस की  भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है ।तीन दशकों की  सुदीर्घ यात्रा मे हंस   ने कम से कम कथाकारों की  तीन पीढ़ियों के विकास में योगदान दिया ।
हंस पत्रिका जब शुरू हो रही थी तब एक एक कर बड़े घरानो से निकालने वाली साहित्यिक पत्रिकाएँ  बंद हो रही थीं । धर्मयुग ,साप्ताहिक हिंदुस्तान ,दिनमान ही नहीं कहानियों की  पत्रिका सारिका भी बंद हो चली थी ।इन सभी पत्रिकाओं की जगह  अकेले हंस ने भरी । सच बात तो ये है कि हंस ने केवल खाली जगह नहीं भरी बल्कि अपने लिए अलग से जगह बनाई । राजेन्द्र यादव ने हिन्दी मे मौजूद सामंती चेतना से लगातार संघर्ष किया । हंस ने स्त्री और दलित लेखन को प्रकाशित और स्थापित ही नहीं किया बल्कि  इसके लिए  एक आंदोलन जैसा चलाया । राजेंद्र यादव ने यह करके साहित्य के दायरे को विस्तारित ही नहीं  किया बल्कि उसके सरोकारों  को भी फिर से परिभाषित किया  । 

मुझे याद आता है कि 90 में एक बार वे गोरखपुर आए थे ।गोरखपुर विश्वविद्यालय में तब प्रेमचंद पीठ की  स्थापना हुयी हुयी थी । प्रेमचंद पीठ के निदेशक प्रोफ परमानद श्रीवास्तव ने 'प्रेमचंद और भारतीय उपन्यास "पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी  आयोजित की थी । इस संगोष्ठी में राजेंद्र यादव और नामवर सिंह दोनों उपस्थित थे । दोनों में तीखी नोकझोक हुयी थी । तब नामवर सिंह ने कथासाहित्य को मृत या मरणासन्न कह दिया था । इस पर राजेंद्र यादव काफी खफा हुये थे । संगोष्ठी मे दोनों एक दूसरे पर खड्गहस्त  थे और बाद में एक साथ बैठे और दोस्तों की तरह बात कर रहे थे । इस पूरे वाकये पर  कुछ लोगों ने भगवती चरण वर्मा की कहानी के  दो बाँको  को याद किया । असल मे पिछड़ी सामंती चेतना के लिए  वैचारिक असहमति और व्यक्तिगत संबंध दोनों को एक साथ स्वीकार करना असंभव लग रहा था । राजेंद्र यादव जीवन भर इस सामंती चेतना से संघर्ष करते रहे ।  स्त्री लेखिकाओं के बारे मे  होने वाले प्रवादों को वे हमेशा पुरुष मन की कुंठाओ से जोड़ कर देखने के हामी थे ॥ 

...... राजेन्द्र यादव के जाने से हिन्दी साहित्य के सिगार से उठता धुंवा हमेशा के लिए खत्म हो गया लेकिन उनकी याद पिछड़ी सामंती,स्त्री और दलित विरोधी चेतना को खत्म करने की प्रेरणा देती रहेगी । 

सदानंद शाही 
निदेशक 
प्रेमचंद सहित्य संस्थान 
संपादक ,साखी 
प्रोफ  हिन्दी विभाग 
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय 
वाराणसी 

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