गुरुवार, 31 जुलाई 2014

गोरखपुर में प्रेमचंद







शहर गोरखपुर के पास गर्व करने के लिए अनेक बातें हैं.अपनी यात्राओं के क्रम में बुद्ध जरूर गुजरे होंगे गोरखपुर से.गोरखनाथ ने अपनी योग साधना का केंद्र बनाया ही था गोरखपुर को .बनारस से मगहर जिस रास्ते से गए हों कबीर बीच में गोरखपुर जरूर मिला होगा .गांधी गोरखपुर आये ही थे .आधुनिक हिंदी के निर्माताओं में प्रमुख प्रेमचंद के जीवन के अनेक पड़ावों का साक्षी रहा है यह शहर .बचपन में प्रेमचंद के भीतर साहित्यिक संस्कार विकसित करने में इस शहर की भूमिका रही है .किस्सागोई का चस्का प्रेमचंद को यहीं लगा .आगे चलकर वे अपनी नौकरी के सिलसिले में गोरखपुर आये .१९१६ से १९२१ तक का समय प्रेमचंद के जीवन का सबसे फैसलाकुन दौर था.इसी दौर में वे हिंदी गद्य का खजाना भरने की ओर मुखातिब हुए.यहीं उन्हें मन्नन द्विवेदी गजपुरी और फ़िराक गोरखपुरी जैसे दोस्त मिले. स्वदेश के संपादक दशरथ प्रसाद द्विवेदी और महावीर प्रसाद पोद्दार जैसा प्रकाशक मिला . प्रेमचंद की कथायात्रा के अनेक पात्र भी यहीं मिले.गोरखपुर छोड़ने के बाद भी प्रेमचंद के जीवन में गोरखपुर बना रहा .कहने का मतलब यह कि कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद के जीवन के बेहद अहम् अध्याय शहर गोरखपुर ने रचे.गांधी के आह्वान पर सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर पूर्णकालिक लेखक बनने का निर्णय भी उन्होंने यहीं लिया था और स्वाधीनता आन्दोलन में कूद पड़े .
यह सही है कि गोरखपुर के रहवासी युवाओं के मन में जब साहित्य का अंखुआ फूटता है वे प्रेमचंद की इस उपस्थिति से प्रेरणा लेते हैं .कुछ साधनहीन संस्थाएं अपने सृजन संकल्प के सहारे प्रेमचंद को निरंतर याद करती रहती हैं और प्रेमचंद के विचारों की मशाल जलाए रखती हैं. अपने इतिहास के इस स्वर्णिम अध्याय पर शहर कितना फख्र करता है -.इसका जायजा लेने के लिए दो प्रसंगों की चर्चा मौजूं होगी. प्रेमचंद के जन्मशती वर्ष में तब के मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने विश्वविद्यालय में प्रेमचंद पीठ स्थापित करने की बात कही थी. आगे चलकर तत्कालीन हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर शांता सिंह और सुप्रसिद्ध आलोचक परमानद श्रीवास्तव के प्रयत्नों से १९९० में गोरखपुर विश्वविद्यलय में प्रेमचंद पीठ स्थापित हुई. उस पर परमानंद श्रीवास्तव नियुक्त हुए. उनके कार्यकाल तक प्रेमचंद पीठ सक्रिय रही. बड़े और महत्वपूर्ण आयोजन हुए. १९९० में प्रेमचंद और भारतीय उपन्यास ऐसे ही आयोजनों में से एक था .१९९५ में परमानद श्रीवास्तव के अवकाश ग्रहण करते ही प्रेमचंद पीठ को भी ग्रहण लग गया.गोरखपुर विश्वविद्यालय ने जाने क्यों अपने इस गौरवशाली अध्याय को धुल पुछ जाने दिया .कुछ लोगों का मानना है कि गोरखपुर विश्वविद्यालय की सांस्कृतिक चित्ति इतनी उदार और समावेशी नहीं है जो प्रेमचंद के सामाजिक विचारों का ताप सह सके.कयास यह भी है कि परमानन्द जी की प्रसिद्धि और लोकप्रियता से खुन्नस का खामियाजा प्रेमचंद पीठ को भुगतना पड़ा. वजह जो भी हो प्रेमचंद पीठ का यह हश्र गोरखपुर विश्वविद्यालय की छवि पर प्रश्नवाचक की तरह बना रहेगा.दूसरा प्रसंग हाल ही में घटित हुआ प्रेमचंद प्रतिमा विवाद है.बीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में प्रेमचंद की स्मृति को सुरक्षित करने के लिए प्रेमचंद पार्क बना..उस परिसर में प्रेमचंद की एक प्रतिमा पहले से ही लगी हुयी थी ,उसे हटा कर प्रेमचंद की आदमकद प्रतिमा लगी.संगमरमर की बनी आवक्ष प्रतिमा जनसहयोग से लगी थी .ट्रेनिंग स्कूल के प्रिंसिपल रहे रमाशंकर शाही के आमंत्रण पर प्रतिमा के अनावरण के लिए प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी आई थीं.१९९६ में प्रेमचंद साहित्य संस्थान ने प्रेमचंद निकेतन से प्रेमचंद पुस्तकालय और साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियाँ शुरू की . तब इतिहासकार प्रो हरिशंकर श्रीवास्तव की प्रेरणा से इस प्रतिमा की तलाश शुरू हुयी .दो वर्षों के निरंतर तलाश के बाद प्रतिमा सीमेंट की बोरियों नीचे दबी क्षतिग्रस्त स्थिति में मिली . प्रतिमा को सम्मान पूर्वक संस्थान के संग्रहालय में रख दिया गया.इस उम्मीद में कि अनुकूल परिस्थिति आने पर प्रतिमा को ससम्मान समुचित स्थान पर स्थापित किया जाएगा. १६वीं लोकसभा के चुनाव के समय आचार संहिता लगी हुयी थी. इसी दौरान जिले के एक अधिकारी को इल्हाम हुआ कि प्रेमचंद की प्रतिमा मुक्ति के लिए छटपटा रही है.उन्होंने निहायत अहमकाना ढंग से पुस्तकालय का ताला तोड़कर पार्क के बाहर बने गोलंबर के नीचे जैसे तैसे प्रतिमा लगा दी . यह नहीं देखा कि वह जगह प्रतिमा के उपयुक्त है या नहीं..बाद में उनका बयान आया कि मेरा कर्तव्य बनता है अपनी जाति के लेखक की प्रतिमा का उद्धार करू.आश्चर्य यह हुआ की बाद में पूरे मामले को जातीय रंग देने की कोशिश भी की गयी. जिला प्रशासन ने इसे अहमकाना हरकत मानते हुए आचार संहिता के बाद निस्तारण करने की बात की.पर अब भी प्रतिमा वैसे ही पड़ी हुयी है. उपेक्षित और अनाद्रित.
विडम्बना देखिये कि जीवन भर जन्म के संस्कारों के विरुद्ध संघर्ष करने वाले लेखक को जन्म के संस्कारों की दुतरफा मार झेलनी पड रही है. गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्रेमचंद पीठ की विदाई इसलिए हुयी कि वे वर्ण आधारित समाज के विरोधी थे . प्रेमचंद प्रतिमा विवाद इसलिए हुआ कि उन्हें एक खास जाति से जोड़कर देखने का संकीर्ण रवैया अपनाया गया .सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता याद आ रही है –सर झुका आओ बोलीं भीतर की दीवारें /सर झुका आओ बोला बाहर का आसमान /दोनों ने मुझे छोटा करना चाहा/बुरा किया मैंने जो ये घर बनाया .दोनों तरह के जन्म के संस्कार प्रेमचंद को छोटा बनाने में लगे हुए हैं .और प्रेमचंद खड़े मुस्करा रहे है.कबीर की तरह –हम न मरें मरिहें संसारा .

बुधवार, 30 जुलाई 2014

कफ़न कहानी: एक पाठ/सदानंद शाही



उद्देश्यः प्रस्तुत इकाई में आप प्रेमचन्द की कफन कहानी का अध्ययन करेंगे। कफन प्रेमचन्द की ही नहीं हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में एक है। कफन एक बहुस्तरीय कहानी है, जिसमें घीसू और माधव की बेबसी, अमानवीयता और निकम्मेपन के बहाने सामन्ती औपनिवेशिक गठजोड़ के दौर की सामाजिक आर्थिक संरचना और उसके अमानवीय /नृशंस रूप का पता मिलता है। कफन एक ऐसे प्रतीक की तरह उभरता है जो कर्मकाण्डवादी व्यवस्था और सामन्ती औपनिवेशिक गठजोड़ के लिए कफन तैयार करता है
इस इकाई को पढ़ने के बाद आप-
प्रेमचन्द युगीन समाज में सामन्ती औपनिवेशिक गठजोड़ की छाया में बनी उस समाजार्थिक संरचना को समझ सकेंगे जो अपने मूल चरित्र में मानव विरोधी है।
आदर्श और यथार्थ से आगे बढ़कर कफन की उस फैंटेसी का मर्म समझ सकेंगे जो यथास्थिति के बरक्स एक नये समाज की संरचना के सूत्र देती है।
कफन कहानी के कौशल की बारीकियों को समझ सकेंगे।
कहानी में मौजूद दलित सन्दर्भ और उसकी व्यापकता को समझ सकेंगे।
प्रस्तावनाः
भारत वर्ष कहानियों का देश रहा है। पंचतन्त्र, कथा सरित्सागर से लेकर जातक कथाओं तक की पूरी परम्परा रही है। किस्सागोई हमारे समाज में लगातार मौजूद रही है।
साहित्यिक विधा के रूप में कहानी का विकास आधुनिक घटना है। अंग्रेजी में उपलब्ध योरोपीय कथा साहित्य से हिन्दी कहानी के विकास की प्रेरणा मिली। हिन्दी में आरम्भिक कहानियाँ प्रायः रूमानी, कोरी कल्पना पर आधारित और उपदेशपरक थीं। प्रेमचन्द हिन्दी कहानी को उसकी वास्तविक जमीन पर ले गये। प्रेमचन्द के आगमन के बाद हिन्दी कहानी को उसका वास्तविक प्रकृति और परिवेश हासिल हुआ।
कथ्य के स्तर पर ही नहीं भाषा के स्तर पर भी यह परिवर्तन दिखाई पड़ता है। प्रेमचन्द उर्दू से हिन्दी में आये थे। उर्दू गद्य काफी विकसित स्थिति में था। प्रेमचन्द के साथ गद्य का सहज और प्रवहमान रूप हिन्दी कहानी में आया। प्रेमचन्द सूक्ष्म दृष्टि विषय वैविध्य और समर्थ भाषा के प्रयोग से हिन्दी कहानी को काफी उचाई पर ले गये।
प्रेमचन्द ने ढ़ाई सौ के करीब कहानियाँ लिखीं हैं। प्रेमचन्द के कहानी लेखन को चार चरणों में देख सकते हैं। 1907 से 1911 के दौर में उनकी आरम्भिक दौर की कहानियाँ हैं। जिसमें ऐतिहासिक घटनाओं, शौर्य एवं प्रेम गाथाओं और किंवदत्तियों पर आधारित कहानियाँ हैं। दूसरे चरण 1912 से 1918 में प्रेमचन्द के व्यापक होते सामाजिक सरोकार, विषय वैविध्य एवं शिल्पगत उत्कृष्ठता का विकास दिखाई देता है। तीसरे चरण में 1919 से 1929 की कहानियाँ आती हैं जिनमें प्रेमचन्द पर गांधी और उनके विचारों का गहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है।
चैथे चरण 1930 से 1936 की कहानियों में भारतीय समाज के आर्थिक, समाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं की तीखी समालोचना दिखाई पड़ती है। कफन कहानी का सम्बन्ध इसी चैथे चरण से है। यह कहानी प्रेमचन्द ने मृत्यु के कुछ समय पूर्व 1936 में लिखी थी।
इस दौर में राजनीति के मंच पर अम्बेडकर आ चुके थे। गांधी के साथ उनकी तीखी बहस चल रही थी। गांधी के प्रति अपनी सारी श्रद्धा के बावजूद प्रेमचन्द तक अम्बेडकर के तर्क पहुँच रहे थे। वर्ण व्यवस्था और उसके पाखण्ड की आलोचना से प्रेमचन्द सहमत थे। अम्बेडकर का मानना था कि वर्ण व्यवस्था की बुनियाद ही गड़बड़ है इसलिए नये समाज के लिए वर्ण व्यवस्था सबसे बड़ी चुनौती है, जबकि गांधी वर्णव्यवस्था में सुधार की गुंजाइश देख रहे थे। इस बहस में प्रेमचन्द अम्बेडकर से सहमत थे। यही कारण है कि प्रेमचन्द ने इस दौर के लेखन में वर्ण व्यवस्था और उसके पाखण्ड पर खुला हमला कर दिया। परिणाम स्वरूप प्रेमचन्द को वर्ण व्यवस्था के हिमायती वर्ग का तीखा विरोध झेलना पड़ा। प्रेमचन्द को घृणा का प्रचारक कहा गया। सदगति, दूध का दाम, ठाकुर का कुँआ आदि ऐसी ही कहानियाँ है। पर कफन इस मामले में भिन्न कहानी है कि वह एक ओर समाज संरचना की उन खामियों को उजागर करती है जिनके आधार आर्थिक हैं तो दूसरी ओर यह कहानी वर्ण व्यवस्था के मूलाधार संस्कारों पर चोट करती है।
 कफन घीसू और माधव की कहानी है। माधव की पत्नी बुधिया भीतर प्रसव वेदना से छटपटा रही है। और बाहर घीसू और माधव अलाव के पास बैठे भुने हुए आलू खाने में लगे है। उधर बुधिया असहय पीड़ा से चीख रही है इधर बाप-बेटा ठाकुर के यहाँ की दावत याद कर रहे है। इधर वे आलू खाकर अलाव के निकट ही सो जाते हैं उधर छटपटाती हुई बुधिया की मृत्यु हो जाती है। सुबह बुधिया की मौत पर दोनो रोना पीटना शुरू करते हैं। कुनबे के लोग जुटते हैं, अन्तिम संस्कार की तैयारी होने लगती है। घीसू माधव कफन आदि की व्यवस्था के लिए निकलते हैं। जमींदार से दो रुपये मिलने के बाद घीसू गाँव भर घूम कर पाँच रुपये से कुछ ज्यादा रकम जुटा लेता है। इधर कुनबे के लोग बाकी इन्तजाम में लगे हैं उधर बाप-बेटा कफन के लिए शहर जाते हैं। दो चार जगह कफन देखने के बाद दोनों शराब की दूकान पर पहुँचते हैं। जी भर कर शराब पीते हैं, दावत उड़ाते हैं, बचा हुआ खाना भिखारी को दान देते है और फिर नशे में मस्त होकर निर्गुण गाते हैं और निढाल होकर गिर पड़ते हैं। कहानी यहीं खत्म हो जाती है।
कहानी पढ़ने पर सबसे पहली बात जिस पर ध्यान जाती है वह है घीसू और माधव की अमानवीयता। बुधिया, जिसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बेगैरतों का दोजख भरती रहती थी- के प्रति दोनो बाप बेटा अमानवीयता की हद तक बेपरवाह हैं। उधर वह दर्द से छटपटा रही है और इन दोनो को भुने हुए आलू की पड़ी हुई है।
कहानी कुल तीन खण्डों में है। पहले खण्ड में प्रेमचन्द ने अपने इन चरित्र नायकों का चित्र खींचा है। प्रेमचन्द स्वयं बताते हैं कि विचित्र था जीवन इनका। यह विचित्रता तीन बातों पर निर्भर थी। पहली बात यह कि दोनों परले दरजे के कामचोर थे। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव आया उघाते काम करता तो घण्टे भर चीलम पीता।
दूसरी बात कि दोनों में संतोष और धैर्य, संयम और नियम की पराकाष्ठा है। प्रेमचन्द लिखते हैं अगर दोनों साधु होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिल्कुल जरूरत न थी। यह तो इनकी प्रकृति थी।...घर में मिट्टी के दो चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता  को ढांके हुए  जिये जाते थे।’
तीसरी बात यह है कि दोनों पात्र विचारशील हैं वे मेहनत करने वाले अपने साथ के लोगों का हश्र देख रहे थे। ‘इसलिए घीसू किसानों के विचार शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठक बाजों की उत्सित मण्डली में जा मिला था।’
यानी जिस समाज में हाड़तोड़ मेहनत करने वाले भूखों मरने को विवश हों और आराम तलब लोगा उनकी मेहनत के बूते मौज उड़ा रहे हों वहाँ घीसू का यह कदम एक विचारशील कदम है।
‘आलू खाकर दोनो ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पांव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों।’
यहाँ तक आते-आते हमारे चरित्र नायक संत कवि मलूक दास जी याद दिलाते हैं-
अजगर करै न चाकरी, पंक्षी करै न काम।
दास मलूका कह गये सबके दाता राम।।
ऐसा लगता है कि घीसू सच्चे अर्थों में मलूकदास का चेला हैै। घीसू माधो दोनों की बेपरवाही इसी कोटि की है। कहानी में कम से कम दो वाकये इसकी पुष्टि करते हैं। माधव के यह कहने पर कि बुधिया को कहीं बाल बच्चा हुआ तो क्या होगा ? घर में तो कुछ है ही नहीं। इस पर घीसू कहता है- ‘सब कुछ आ जायेगा। भगवान दें तो! इसी तरह माधव के यह पूछने पर कि कफन का इन्तजाम होगा कैसे घीसू परम आश्वस्ति के साथ कहता है- यही लोग देंगे। हो सकता है पैसे न दें कफन ही ले आयें। यह आसदगी ही घीसू और माधो की कामचोरी और निकम्मेपन को सन्तों वाली इस दार्शनिक ऊंचाई तक ले जाती है।
प्रेमचन्द के दोनों विचित्र पात्र कामचोर हैं, निस्पृह हैं, बेपरवाह हैं पर विचारशील हैं। उनकी कामचोरी, निस्पृहता और बेपरवाही का सम्बन्ध उनकी विचारशीलता से है। उनकी यह विचित्रता विचार पूर्वक अर्जित की गई विचित्रता है।
सामाजिक संरचना ऐसी है कि ‘किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे।‘ किसान और मजदूर की हालत इस कदर खस्ता केवल उसकी आर्थिक स्थिति के नाते नहीं बल्कि उसकी वर्गीय स्थिति के नाते है। किसान में ‘दुर्बलताएँ’ हैं। शोषक वर्ग न केवल इन दुर्बलताओं को जानता है बल्कि इन दुर्बलताओं से फायदा उठाना भी जानता है। कफन कहानी में ही नहीं अपने समूचे लेखन में प्रेमचन्द इन दुर्बलताओं के खिलाफ संघर्ष करते लड़ते दिखाई पड़ते हैं।
घीसू माधो में चाहे जितना नाकारापन हो कम से कम वे दुर्बलताएँ नहीं है जिनका बेजाँ फायदा उठाया जा सके । उल्टे घीसू को शोषक शार्षक वर्ग की दुर्बलताओं की पहचान है और उनकी दुर्बलताओं से फायदा उठाने की समझ। सारी बदहाली फटेहाली के बावजूद घीसू अगर बेपरवाह दिखता है तो अपने इसी खासियत के चलते। शोषक वर्ग की दुर्बलताओं की समझ उसकी बेपरवाही के मूल में है।
प्रेमचन्द लिखते हैं- ‘मगर इन दोनों को (मजदूरी के लिए) उसी वक्त  बुलाते जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा कोई चारा न होता।’ आमतौर पर शासक या जमीदार वर्ग के समाने किसान-मजदूर जिस तरह बेबस होते हैं घीसू माधों के सामने जमीदार/शासक समूहों के लोग उसी तरह बेबस हैं। जाहिर है उस समय न तो काम के घण्टे तय थे और न ही न्यूनतम मजदूरी का कोई सिद्धान्त था। मजदूरी भी मनमानी थी और काम के घण्ट भी मनमाने ढंग से तय होते थे। घीसू माधों के आस-पास न तो काम के घण्टे और न्यूनतम मजदूरी जैसी कोई बात थी और न ही कोई आन्दोलन। लेकिन घीसू-माधो ने अपनी हिकमत (और हिम्मत) से ऐसा तरीका ईजाद कर लिया था जिसमें वे अधिकतम काम और न्यूनतम मजदूरी के प्रचलित व्यवहार की जगह न्यूनतम मजदूरी के लिए न्यूनतम काम की शर्त को जाने अनजाने मनवा रहे थे। ‘बुधिया के आने के बाद से तो इस बात को लेकर घीसू माधव में एक अकड़ आ गयी थी और वे निव्र्याज  भाव से दुगनी मजदूरी मागने लगे थे।’ संभव है उन्हें इसमें भी सफलता मिल गयी हो। इसके अलावा वे फटेहाल चाहे जितने हों खुद मुख्तार तो थे ही। अपने बाकी भाई बन्धुओं की तरह कोल्हू के बैल की तरह जुत तो नहीं रहे थे। यह सब इसलिए संभव हुआ कि उनके भीतर वे दुर्बलताएँ नहीं थी जिनके आधार पर प्रभुवर्ग उनका शोषण कर सके।
सवा सेर गेहूँ कहानी के शंकर के जीवन की सारी त्रासदी के मूल में उसकी वे दुर्बलताएँ हैं जिन्हें पुरोहित वर्ग ने कहीं बहुत गहरे उसकी चेतना में रोप दिया है। घीसू और माधो की चेतना उन सभी पौरोहिती और वर्ण व्यवस्था जनित मान्यताओं को अस्वीकार कर देती है। प्रभुवर्ग की मान्यताओं का आत्मसातीकरण दलित समुदाय के दुखों के मूल में है। घीसू की चेतना इस अर्थ में विकसित है कि वह आत्मसातीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनता। प्रेमचन्द की कोशिश है कि किसान मजदूर स्त्री दलित इस आत्मसातीकरण की प्रक्रिया से बाहर आयें। वे इसका हिस्सा बनने की बजाय इस प्रक्रिया से बाहर निकले और इसे रोक दें। इसके बगैर सच्ची मुक्ति की बात बेमानी है।

दलित आक्षेप और कफन
साहित्य का उद्देश्य निबन्ध में प्रेमचन्द सौन्दर्य का मेयार बदलने की बात करते हैं। वे सौन्दर्य की खोज में विशिष्ट की अपेक्षा साधारण की ओर जाने का प्रस्ताव करते हैंै। प्रेमचन्द साहित्य को जीवन की आलोचना कहते हैं।  तो इसका अर्थ यह है कि जीवन में सुन्दर की खोज की जाय और असुन्दर को पहचान कर उसका निरीक्षण किया जाय। दलित जीवन की त्रासदी और अस्पृश्यता की समस्या के मूल में समाज में प्रभुत्व प्राप्त वर्णाश्रमी मूल्य ही हैं। प्रेमचन्द इस तथ्य को अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए प्रेमचन्द वर्णाश्रमी मूल्यों-संस्कारों पर कुठाराघात करते हैं। दलित जीवन पर प्रेमचन्द का लेखन दरअस्ल वर्णाश्रमी मूल्यों-संस्कारों की समीक्षा ही है। गांधी मानते थे कि वर्ण व्यवस्था अपने आदर्श रूप में ठीक रही होगी। जरूरत इसकी विकृतियों को दूर करने की है। जबकि अम्बेडकर का मानना था कि सनातनी हिन्दू व्यवस्था के मूल में ही गड़बड़ी है इसलिए इसे पूरी तरह बदल देना जरुरी है। प्रेमचन्द का दलित जीवन पर केन्द्रित लेखन प्रमाणित करता है।कि वे वैचारिक रूप से अम्बेडकर के साथ खड़े हैं। इसीलिए वे सतानती हिन्दू समाज में आमूलचूल परिवर्तन की कोशिश करते दिखाई पड़ते हैं। दलित जीवन पर केन्द्रित प्रेमचन्द का लेखन इसी कोशिश का हिस्सा है। कफन कहानी भी इसी कोशिश में शामिल है। कफन कहानी के मुख्य पात्रों का सम्बन्ध दलित जाति से है और ये पात्र बेहद अमानवीय, निष्ठुर, निकम्मे मानवीय सदगुणों से पुरी तरह रहित आदि दिखते हैं- इसलिए दलित चिन्तकों को आपत्ति है। प्रसिद्ध कथाकार ओमप्रकाश बाल्मिकी ने सबसे पहले कहानी के दलित विरोध रूप को चिन्हित किया था।

ओमप्रकाश बाल्मीकि की मुख्यतः दो आपत्तियाँ हैं बुधिया को अकेले मर जाने देना और दलित पात्रों को निकम्मा और कामचोर चित्रित करके दलितों के बारे में चली आयी सवर्ण धारण को प्रतिष्ठित करना। बुधिया की मृत्यु सचमुच स्वाभाविक लगती है। यह सवाल उठाया जाता है कि बुधिया के मरने के बाद कुनबे के लोग खास तौर से औरतें आती हैं वे उस समय क्यों नहीं आते जब बुधिया दर्द से चीख चिल्ला रही थी और छटपटा रही थी। कहानी के आरम्भ में ही बुधिया की मौत हो जाती है। कहानी के पहले खण्ड में प्रेमचन्द अपने पात्रों का चरित्र चित्रण करने में मशगूल हैं। तड़पति हुई बुधिया के तड़प के बरक्स घीसू-माधव का  विभिन्न चरित्र उभरता है। वे आलू खाकर पानी पीकर धोती ओढ़कर सो जाते हैं उधर बुधिया की कराह जारी है। पूरी रात का घटना क्रम अनकहा रह गया है। बुधिया के ठण्डे पड़ जाने की सूचना के साथ भोर होती है। प्रेमचन्द यह भी बताते हैं  कि उसके पेट का बच्चा मर गया है। पूरी कहानी बुधिया की मृत्यु पर टिकी है। मृत्यु आकस्मिकता होती है। प्रेमचन्द अपनी कहानियों में मृत्यु की आकस्मिक का प्रयोग एक टेकनीक के रूप में करते हैं। गोदान में गाय और मातादीन और झुनिया के बेटे की मृत्यु हो या सदगति में दुखी की या फिर दूध का दाम कहानी में गूदड़ और भूंगी की। प्रेमचन्द गूदड़ और भूंगी की मृत्यु का महज उल्लेख करके आगे बढ़ जाते हैं। इसके बाद वे कहानी के नायक मंगल का तफसील से वर्णन करते हैं। गूदड़ और भूंगी के मृत्यू के बाद ही मंगल निरीहता की जीती जागती मूर्ति बन जाती है। यह इन्तिहां ही मंगल को वह ताकत देती है जो खेल के समय सुरेश बाबू और उनके साथियों की सारी हिकमत को ध्वस्त कर देती है। कफन में बुधिया की मृत्यु इतनी अकास्मिक है कि पाठक उसे सूचना की तरह लेता है और आगे बढ़ जाता है। तड़पती और दर्द से कराहती बुधिया के पास कुनबे के लोग नहीं आते हैं, यह अस्वाभाविक तो है पर असंभव नहीं है। देर शाम जब घीसू और माधो आलू खाने में लगे थे- कुनबे के लोग गहरी नींद में हो सकते थे। आलू खाने के लोभ में घीसू माधो बुधिया को देखने भीतर तो जा नहीं रहे हैं वे अगल-बगल किसी को बुलाने क्या जायेंगे। कुनबे के लोग यदि आ ही गये होते तो  क्या फर्क पड़ जाता। जच्चे और बच्चे की मृत्यु को उस साधनहीनता में टाला नहीं जा सकता था। इसलिए इसी आधार पर कहानी को खारिज करना या प्रेमचन्द को कठघरे में खड़ा करना उचित नहीं है। इससे प्रेमचन्द न तो कुनबे के लोगों की असंवेदनशीलता उजागर कर रहे हैं और हीं ऐसा उजागर होता है। अगले दिन कुनबे के लोग ही हैं जो जुटते हैं और घीसू माधो के निकल जाने के बाद बुधिया के लाश की देख-भाल करते हैं। इसलिए सब कुछ कहानी की मांग के अनुरूप होता है।
जहाँ तक घीसू और माधव के निकम्मेपन से समूचे दलित  समाज को निकम्मा और कमचोर समझे जाने की बात है। प्रेमचन्द स्वयं अपने इन चरित्रों को ‘विचित्र कहते हैं। वे विचित्र इसलिए हैं कि जब कुनबे के लोग हाड़ तोड़ मेहनत करके भी अधनंगे और भूखे रहने पर मजबूर हैं। वहाँ इनका निकम्पापन और कमचोरी इनकी विचारशीलता का प्रमाण है। प्रेमचन्द ने कहानी में विचारशीलता और कर्मशीलता के दो स्पष्ट विभाजन किये हैं। प्रेमचन्द उस कुत्सित मण्डली को विचारशील पाते हैं तो तीन तिकड़म करके भोले-भाले मेहनत कश लोगों को छलने और लूटने में लगे हैं।
रात को आलू उखाड़ने मक्का तोड़ने यहाँ तक की गन्ना तोड़कर खा जाने की घटनायें होती रहीं हैं। पेट भरने के दो चार रुपये का आलू उखाड़ लेने वाला घटिया  और निकृष्ट करार दिया जाता है जबकि लाखों-करोड़ों का वारान्यारा करने वाले सम्मान की दृष्टि से देखे जाते  हैं। कफन कहानी इस विडम्बना की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट करती है।
ओम प्रकाश बाल्मीकि अपनी एक कविता में कहते हैं-

कुंआ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत खलिहान ठाकुर के
गली मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या
गाँव/ शहर/ देश

इसे पढ़ते ही प्रमचन्द की कहानी का कुंआ की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
‘‘ ब्राह्मण देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहूजी एक के पाँच लेंगे। गरीबी का दर्द कौन समझता है। हम तो मर भी जाते हैं तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कँए से पानी भरने देंगे।
कहने की जरूरत नहीं कि ओम प्रकाश बाल्मीकि ने अपनी कविता में ‘ठाकुर का कुंआ’ के प्रतीक का उपयोग करते हैं। ठाकुर  का कुँआ सामन्ती सत्ता का प्रतीक है जिसे चुनौती देने का साहस गंगी करती है। ओम प्रकश बाल्मीकि इस प्रतीक की व्याख्या करते हैं। कुँआ ही नहीं खेत खलिहान गल्ली मुहल्ले सब ठाकुर के हैं, यह यथास्थिति का बयान मात्र है। कविता जब यह सवाल करती है- फिर अपना क्या तब वह यथास्थिति पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। ‘ठाकुर का कुँआ’ के प्रतिक को कवि ओमप्रकाश बाल्मीकि समझते हैं और उसे अपने ढंग से रचनात्मक विस्तार देते हैं। पर विमर्शकार ओमप्रकाश बाल्मीकि कफन के प्रतीक को समझने के बजाय ऐसी चीजों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं जहाँ से उनके विमर्शकार को तर्क मिलते हैं। ओमप्रकाश बाल्मीकि ठीक कहते हैं कि प्रेमचन्द को देवता बना दिया गया है। प्रमचन्द को देवता बनाना जितना गलत है उतना ही गलत है उनसे देवता जैसी पूर्णता की मांग करना। प्रेमचन्द मनुष्य थे। उनसे भी चूक हुई है। किसी तकनीकी चूक के आधार पर कहानी के मूल मन्तव्य को नकार देना कहाँ की समझदारी है। ‘लाश उठते उठते रात हो जाएगी’ इस वाक्य के आधर पर प्रेमचन्द के कुछ सवर्ण आलोचकों ने सवाल उठाया हैं कि रात में कहाँ उठती है? प्रेमचन्द को इस सच्चाई का ज्ञान नहीं था इसलिए पूरी कहानी रद्दी की टोकरी में टाल दी जाय। अरे भाई बेबी टब के गन्दे पानी को फेंकिए पर बेबी को तो बचा लिजिए। कथन के बहाने कहानी वर्णवादी संस्कारों पर सवाल उठाती है, सामंती औपनिवेशिक गठजोड़ से पैदा हुए समाज की विकृति पर सवाल उठाती है। महज कुछ तकनिकी बातों के आधार पर इन सवालों को गलफत करना दरअस्ल उसी वर्णवाद को मजबूत करना है।
कफन कहानी का सम्बन्ध अन्तिम संस्कार से है। बुधिया के अन्तिम संस्कार के लिए घीसू और माधव निकलते हैं। सारे ताम झाम के बाद भी कहानी में अन्तिम संस्कार नहीं हो पाता। कफन कहानी यहाँ गोदान उपन्यास से जुड़ती हैं। अन्तिम संस्कार का मामला वहाँ भी है। उपन्यास में गोदान कर्मकाण्ड के लिए धनिया की घृणा के स्वर तक पहुँची हुई विरक्ति देखने लायक है। कफन कहानी में यह जिम्मेदारी घीसू और माधो के कन्धे पर आती है। गोदान में धार्मिक सामाजिक आर्थिक शोषण तन्त्र के खिलाफ जूझते हुए होरी की मृत्यु होती है। जूझने की इस यात्रा में धनिया होरी के साथ है। वह देखती है कि मूल्यों मान्यताओं के साथ ताल मेल बिठाकार चलने वाले होरी महतो का क्या हश्र होता है। कदम कदम पर संघर्ष के बाद भी जीवन का यह हाल होता है। गोदान जैसा कर्मकाण्ड भी उसी शोषण तन्त्र की रचना है जिसका शिकार होरी बनता है। इसलिए धनिया का मन वितृष्णा से भर उठता है और वह यही है उनका गोदान कह कर गोदान के प्रति अपनी वितृष्णा को व्यक्त करती है। ठाकुर का कुंआ कहानी की गंगी का याद आती है। उसका दिल रिवाजी पाबन्दियां के खिलाफ विद्रोह से भर गया। दरअस्ल यह लेखक प्रेमचन्द का हदय है जो रिवाजी पाबन्दियों के खिलाफ विद्रोह से भर गया है। सवा सेर गेहूँ कहानी में शंकर की यातना के मूल में उसके वर्णवादी सोच के दायरे में विकसित  उसके अपने विचार ही है। ब्राहमण देवता ने शंकर के साथ जो धूर्तता की उसके पीछे कोई कानूनी दावा नहीं था।
 उनका बल वर्णवादी सोच द्वारा फैलायी गयी कर्मफल, पुनर्जन्म लोक परलोक जैसी धारणायें थीं जो शंकर को बाँधे हुए थीं। दलित जीवन की दुर्दशा के मूल में ऐसी धारणायें काम कर रही थीं। वर्ण व्यवस्था के तंत्र का जिस तरह आत्मसातीकरण पूरे समाज में हुआ है प्रेमचन्द की नजर वहाँ है। जिस धीसू और माधो को निकम्मा और कामचोर समझा जाता है जरा देखें की अगर शंकर की जगह धीसू होता तो क्या सवा सेर गेहूँ कहानी की परिणति वही होती या कुछ अलग होती। ब्राह्मण देवता धीसू की वह दुर्गत कभी न कर पाते जो उन्होंने शंकर की हुई। प्रेमचन्द शंकर जैसे चरित्रों की सरलता और निरीहता देख रहे थे जिसका बेजा फायदा ब्राह्मण देवता उठा रहे थे। धीसू और माधो और जो भी हों ऐसे सरल और निरीह नहीं हैं। यहाँ थोड़ा ठहर कर सरलता और निरीहता पर विचार कर लें। सरलता और निरिहता विद्रोह का हथियार बन जाती है। वैसे देखें तो धीसू और माधो जैसी सरलता कहाँ मिलेगी। पेट भरने की जुगत हो जाय उसके बाद उन्हें कुछ संग्रह करना है न कोई तीन पाँच करना है। बस पेट भर जाय। यह तो सरलता की इन्तिहा है। निरीह इतने हैं कि मरणासन्न बुधिया के लिए कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं है। जमींदार सेठ साहूकार को छोडि़ए उसके अपने कुनबे के लोग भी उसकी खोजखबर नहीं ले रहे है।
तन पर कपड़े नहीं, पेट भर भोजन नहीं, कोई पोरसाहाल नहीं अब इससे ज्यादा निरीहता क्या हेागी। पर दर्द का हद से गुजरना ही दवा होना है। धीसू और माधो अपनी सरलता और निरीहता को ही अपना औंजार बना लेते हैं। धीसू और माधो प्रेमचन्द द्वारा रचे खास तरह के विद्रोही चरित्र है। पर उनका विद्रोह उनसे हमें दिखाई नहीं देता । पर अस्ल हम विद्रोह की एक खासमुद्रा से परिमित होते हैं जबतक विद्रोह की खास मुद्रा दिखाई नहीं देती हम विद्रोह केा देख ही नहीं पाते।
घीसू माधो का रोम रोम रिवाजी पाबन्दियों और वर्णवादी बन्दिशों से विद्रोह करता है। यह विद्रोह उनके जीवन भरके आचरण व्यवहार में दिखाई पड़ता है। अन्त में वे बुधिया का अन्तिम संस्कार नहीं करते। कफन के पैसे से दारु पी जाते हैं। दारु पीने के बाद घीसू और माधो एक बहुत बड़े प्रश्न से टकराता है- ‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने केा चिथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफन चाहिए।’
यू0 आर0 अनन्तमूर्ति के संस्कार उपन्यास में भी अन्तिम संस्कार के लिए, नागरप्पा की लाश पड़ी है।उधर प्राणेशाचार्य पोथियों म,ें फिर हनुमान मन्दिर में समस्या का हल खोजते हैं और इधर दलित बस्ती के लोग अपने ढंग से अन्तिम संस्कार कर डालते हैं। उसके बाद प्राणेशाचार्य पूरे उपन्यास में अपने बा्रह्मण के संस्कारों से मुक्ति के लिए भटकते हैं।
यहाँ कफन को लेकर, अन्तिम संस्कार को लेकर घीसू माधो में जो संवाद होता है, वह वृहत्तर समाज को ब्राह्मणत्व के संस्कारों से मुक्त करने वाले है। जीते जी भोजन न मिले, वस्त्र न मिले, सम्मान न मिले- मरने के बाद बैकुण्ठ जाने की चिन्ता खाये रहती है। बैकुण्ठ का टिकट अन्तिम संस्कार के समय ब्रह्मण देवता को दिये जाने वाले दान से मिलता है। यहाँ घीसू माधो मयखाने में बैठकर छक कर पीते हैं, भर पेट खाते हैं, अघाते हैं और बची हुई पूरिया भिखारी को दान देते हैं - बैकुण्ठ में बुधिया का स्थान सुरक्षित कर देते हैं। विश्वामित्र ने त्रिशंकु को जीते जी स्वर्ग भेजने का प्रयास करके स्वर्ग और नर्क का मायाजाल रचने वालों की सत्ता को चुनौती दी थी।
यहाँ घीसू माधो बिना अन्तिम संस्कार का पाखण्ड किये बुधिया को सीधे बैकुण्ठ भेज रहे हैं। यह जन्म से लेकर मृत्यु तक समूचे  जीवन को संस्कारों में बाँध कर जीअतो खइहैं मुअतो खइहैं का विधान रचने वाले ब्राह्मणवाद को चुनौती देते हैं।
‘कफन’ 1936 में प्रकाशित हुई। कहने की जरुरत नहीं कि इस समय प्रमचंद अपने वैचाारिक और कलात्मक शीर्ष पर पहुंच चुके थे।  उनकी वैचारिक ऊंचाई का उदाहरण मृत्यु के कुछ माह पूर्व लिखा गया ‘महाजनी सभ्यता’ शीर्षक लेख है, जिसमें वे पूँजीवाद का खुला विरोध करते हैं और नृशंस अमानुषिक पँूजीवाद के विनाश के प्रति आश्वस्त हैं। कलात्मक ऊचाई का एक उदाहरण स्वयं ‘कफन’ कहानी है।
‘कफन’ तक आते- आते प्रेमचन्द की कला इतनी परिपक्व हो गयी थी। उनके विचार या कलात्मक अभिप्राय लेखक प्रेमचन्द पर हावी नहीं होते थे। यथार्थवादी कहानियों में स्वयं या किसी पात्र से कहलवा देते थे, इसलिए प्रेमचन्द की आरंभिक रचनाशीलता की इस प्रवृत्ति से अभ्यस्त पाठक कफन में ऐसा प्रकट विचार न पाकर इस कहानी की मनचाही व्याख्या करते हैं।
इसी वजह से ‘कफन’ को गहरे यथार्थ बोध की कहानी के रूप में पढा गया तो बहुत दिनों तक ‘डिह्यूमनाइजेशन’ की कहानी के रूप में पढने का प्रस्ताव किया। इधर दलित उभार के साथ ‘कफन’ को दलित विरोधी कहानी के रूप पढा जा रहा है। इसे भी कहानी की कलात्मक ऊँचाई का प्रमाण माना चाहिए। दलित विचारकों का आरोप है कि घीसू- माधव जैसे  संवेदनहीन पात्र यथार्थ में नहीं हो सकते, इसलिए प्रेमचंद ने अपनी सवर्ण दृष्टि के नाते जानबूझकर दलितों को अपमापित करने के लिए ऐसे बैगेरत पात्रों की सृष्टि की है। फिलहाल इस बहस में जाने की आवश्यकता नही है कि ऐसे पात्र हो सकते हैं या नहीं। यह तथ्य है कि प्रेमचन्द ने ‘कफन’ कहानी लिखी है और उसमें धीसू माधव जैसे चरित्र रचे हैं। देखना यह है कि इन पात्रों की कहानी वास्तव में क्या कहती है? क्या यह वास्तव में दलित विरोधी कहानी है?
कफन को ‘डिह्यूमनाईजेशन’ की कहानी बताते हुए कहा गया कि निर्मम सामन्ती व्यवस्था मनुष्य को कैसे अमानवीय बना देती है। यह अर्थ किया गया कि प्रमचंद यह दिखाना चाहते हैं कि घीसू और माधव जिस व्यवस्था के उत्पाद थे, वह कितनी गर्हित है। इसमे एक अन्तर्निहित सन्देश है कि ऐसी व्यवस्था जो बदल देना चाहिए आदि।
वस्तुतः अपने अभिप्राय में यह एक बहुस्तरीय कहानी कहानी है, इसलिए इसके पात्र धीसू- माधव का चरित्र भी बहुस्तरीय है। एक घीसू- माधव है जो जाति के चमार हैं, भूमिहीन हैं, मजदूर हैं, वे देख रहे हैं कि जी तोड़ मेहनत करने वाले भी ढंग से नही जी पा रहे हैं, उनके लिए पेट भरना भी मुहाल है। इसलिए वे निकम्मे और कामचोर हैं। निकम्मापन और कामचोरी उनका चरित्र नही है। उनकी हिकमत है। शोषण से बचने का उपाय है। जाहिर है उस समय दलित आन्दोलन नही था, असंगठित मजदरों- भूमिहीन किसानेां के शोषण से बचाने संघषर््ा नही कर पाते। उनके भीतर एक विद्रोह चेतना है जो कामचोरी के रूप में, निकम्मेपन के रूप में प्रकट होती है। जाने- अनजाने वे उतने ही काम के लिए दोगुनी मजदूरी लेने में सफल होते हैं जितने के लिए साधारणतः एक व्यक्ति को मिलती थी। न्यूनतम मजदूरी का न कोई विधान था, न आन्दोलन। अधिकतम काम और अल्पतम के लिए अल्पतम काम के अघोषित नारे पर चलने वाला संघर्ष था।
दूसरे घीसू माधव वे हैं वे हैं जो दर्द से छटपटाती बुधिया से बेपवरवाह आलू खा रहे हैं। वे बेपरवाह अमानवीयता के नाते नहीं, असहायता के नाते थे। बेपरवाह होने को विवश थे। पूरी तरह निहंग। जब ओझा भी देखने के लिए एक रुपया मांग रहा हो और जेब में फूटी कौड़ी न हो तो ‘बेपरवाह’  होने के अलावा उनके पास चारा भी क्या था? प्रेमचंद लिखते हैं- ‘‘हम तो कहेंगे घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान था और किसानो के विचारशून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठक बाजों की कुत्सित गण्डली में जा मिला था।’’ इसलिए उनका जन्म भ्ले ही दलित वर्ग में हुआ हो उनका चरित्र दलित नहीं है। बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली का चरित्र है। इसीलिए इन दोनों का आलू खाना पृष्ठभूमि में बुधिया का दर्द से छटपटाना एक दृश्य भर नही है। एक रूपक भी है। अपने श्रम  से समाज का पेट भरने वाला हिस्सा दर्द से छटपटा रहा है और बैठकबाजों की मण्डली के सदस्य इससे बेपरवाह माल उड़ा रहे हैं।
तीसरे घीसू, माधव वे हैं जो पैसे मिलने पर कफन खरीदने की जगह शराब की दुकान पर पहँच जाते हैं। जमकर पीते है,जी भर खाते है और अघाते हैं। इस दौरान बुधिया लगातार इनके जेहन में उपस्थित है। वे इस पर लानत भेजते हैंकि जीते जी यही रुपये मिल जाते तो दवा दारु करके उसे बचा लिया जाता। मरने के बाद समाज कफन देने केा तैयार है, जीत जी दवा देने को नही। वे बुधिया की मेहनत याद करते हैं और उसके प्रति श्रद्धावान होते हैं। भगवान से उसके लिए सीधे बैकुण्ठ में स्थान सुरक्षित कराते हैं। उनमें जबरदस्त किस्म का अपराध बोध और कर्तव्यबोध का मिश्रित भाव जगता है। उसके ठीक बाद दुःख और निराशा का दौर आ जाता है। माधव कहता है- ‘मगर दादा! बेचारी ने बड़ा दुःख भेागा। कितना दुःख झेलकर मरी।’ ध्यान रहे यह वही माधव है, जो थेाड़ी देकर पहले आलू के चक्कर में दर्द से तड़पड़ाती बुधिया के पास तक नहीं गया और उसके कफन के पैसे की शराब पी गया। अब कातर होकर रोता है। उसका पिता दार्शनिक अन्दाज मे समझाता है कि खुश हो बेटा  िकवह इतनी जल्दी मायाजाल से मुक्त हो गयी। दःख की इसी दशा में वे गाने लगते है-‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी!’ दुःख का चरमोत्कर्ष कबीर के इस निर्गण में जाकर विलीन हो जाता है।
निर्गुण की रोशनी में ‘ठगनी क्यों नैना झमकावेः’ ठगनी! गाने के बाद वे गिर पड़ते हैं यहीं से एक बार इस कहानी का रीप्ले देखा जाए। हम पायेंगे कि कबीर का निर्गुण पूरी कहानी को नये सिरे से आलोकित करता है। इस आलोक में घीसू का बिल्कुल नया रूप दिखाई देता है। निकम्मे, कामचोर, संवेदनहीन और पियक्कड़ घीसू की आत्मा में कबीर की झलक बिजली की तरह चमक उठती है। अभाव और दुःख घीसू को उस भूमि पर ले जाता है, जहाँ से कबीर को माया और मायाजन्य विषमता का अभिज्ञान हुआ था। कबीर की माया शंकराचार्य की माया नहीं है और न ही कबीर का रहस्यवाद किसी दार्शनिक चिन्तन का परिणाम। कबीर का रहस्यवाद मायाजन्य विषमता का जवाब था। बुधिया की माया से ‘मुक्ति’ और ‘बैकुण्ठ गमन’ इस रहस्यवाद का ठेठ रूपान्तरण है। घीसू माधव के पास ‘माया’ नही है। माया के मारे हुए हैं। माया अपनी आँखे नचा रही है, प्रलोभन दे रही है। पास नहीं आती। पर घीसू और  माधव उस दशा में पहुँचे हुए हैं जहाँ दर्द इस हद से गुजरा है कि दवा हो गया है! वे अब माया की धौंस में नहीं है। उलटे माया को धौंस दिखा रहे हैं। दिखा रहे हैं कि वे माया के बावजूद जिन्दा हैं, वे खुश हो सकते हैं, गा सकते हैं, नाच सकते हैं, झूम सकते हैं। उनके आगे माया का कोई वश नही है। माया न उनका कुछ बिगाड़ सकती है, न उनकी बुधिया का, क्योंकि वे यहाँ मधुशाला में है और बुधिया वहाँ बैकुण्ठ में। बुधिया के प्रति बरती गई बेपरवाही के भीतर छुपा गहरा लगाव औश्र दुःख यहाँ प्रकट हो रहा है।
रीप्लें को आगे बढाये और घीसू के कुछ वक्तव्यों पर गौर करें। घीसू कहता है- ‘‘वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जायेंगे जो गरीब को दोनो हाथों से लूटते हैं और अपने पाप धोने के लिए गंगा में नहाने हैं और मन्दिर में जल चढाते हैं?’’
थोड़ा और आगे बढने पर घीसू और माधव का यह संवाद मिलता है, ‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने का चिथड़ा भी न मिला, उसे मरने पर नया कफन चाहिए।’
कफन लाश के साथ जल ही तो जाता है? ‘और क्या रखा रहता है?’ यही पाँच रुपये मिलते तो दवा दारू करा लेते।
घीसू के इन कथनों को ध्यान से पढे़, जिनमें कबीर की अनुगूंज सुनाई देती है। क्या इन कथनों में सामन्तवाद से ग्रस्त, संकीर्ण हिन्दू धर्म की रुढियों के प्रति विद्रोह नहीं है? यही नही, घीसू के यहाँ विकृत पूँजीवाद के प्रति विद्रोह का भाव भी दिखता है। नौजवानी में ठाकुर के बारात की भेाज की याद करते हुए कहता है, ‘‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सब को किफायत सूझती है।शादी ब्याह में मत खर्च करो। पूछो, गरीब का माल बटोर- बटोर कर कहाँ रखेागे? बटोरने मे तो कमी नहीं है। हाँ खर्च में किफायत सूझती है’’।
घीसू के पास समाज की पहचान थी। शोषण पर उसकी नजर थी। शोषण के विरुद्ध संघर्ष का उसका अपना तरीका था। अब इसमें प्रेमचंद का क्या दोष कि उनके समय तक समाज (पूर्वी उत्तर प्रदेश) के घीसू- माधव का आँसू पोछने कबीर पहुँचे हुए थे, अम्बेडकर नहीं। इसलिए ‘कफन’ को आरोपित करने का अर्थ कबीर को आरोपित करना भी हो सकता है। अस्तु, लेखक की जाति देखकर मूल्यांकन करने की हड़बड़ी के बजाय उसकी रचना का सतर्क पाठ - पुनर्पाठ करके मूल्य निर्णय करना बेहतर होगा। यदि अम्बेडकर ने ऐसी हड़बड़ी की होती तो उन्हें बौद्ध धर्म की अच्छाइयाँ समझ में न आतीं।
दलित जन- उभार के इस दौर में जब अम्बेडकर घीसू- माधव के वंशजों तक पहुँच रहे हैं, उनकी जीवन स्थितियाँ बदल रहे हैं, ‘कफन’ विरोध सिद्ध करने का हठयोग करने के बजाय नई जीवन स्थितियों  पर अच्छी कहानियाँ लिखी जानी चाहिए। इन परिवर्तनों पर राजनीतिकों की नजर है। इसके पहले कि वे इस प्रक्रिया को राजनीतिक फसल तक सीमित कर दें, दलित और गैरदलित लेखकों को इस परिवर्तन पर नजर रखनी चाहिए ताकि देश की दलित- शोषित जनता के लिए ‘परिवर्तन’ छलावा न सिद्ध हो, बल्कि उसका जीवन सचमुच परिवर्तन हो।

भारतीय समाज के भीतरी आलोचक हैं-प्रेमचंद/ सदानंद शाही



प्रेमचंद का नाम हिंदी के उन महबूब लेखकों में शुमार हैं जिनकी पंहुच केवल  साहित्य समाज तक महदूद नहीं है.वे हिंदी-उर्दू  भाषी समाज के वृहत्तर दायरे में याद किये जाते हैं .हिंदी और उर्दू दोनों के साहित्य में प्रेमचंद का योगदान युग निर्माता जैसा है, इसलिए वहां तो वे अपनी साहित्यिक खूबियों के नाते याद किये जाते हैं .जिस आधुनिक हिंदी का हम आज प्रयोग कर रहे हैं उसे यदि प्रेमचंद का हाथ न मिला होता तो वह कैसी होती  यह कल्पना करना मुश्किल होता .प्रेमचंद के आगमन से हिंदी गद्य अचानक इतना विकसित और टकसाली हो गया कि वह दुनिया की अनेक समर्थ भाषाओँ के साथ होड़ लेने लगा .प्रेमचंद ने यह कमाल सादगी से हासिल किया .उनका रचनात्मक लेखन हमें यह सिखाता है कि सादगी में सौन्दर्य कैसे पैदा किया जा सकता है .प्रेमचंद की कलम हमें साधारण के सौन्दर्य को देखने की आँख देती है.प्रेमचंद की लेखनी के स्पर्श से चिमटा जैसी साधारण वस्तु भी सुन्दर लगने लगती है .ईदगाह कहानी के हामिद के हाथ से एक बार चिमटा लेकर देखने के लिए उसके हमउम्र साथियों का ही नहीं हमारा मन भी मचल उठता है .प्रेमचंद के रचना संसार में हमारी भेट जिन लोगों से होती है वे हमारे रोजमर्रा के जीवन के ही पात्र होते हैं .ऐसे पात्र जिन्हें हम  अति परिचय के नाते जानते हुए भी नहीं पहचान पाते हैं ,उन्हें पहचानने में प्रेमचंद हमारी मदद करते हैं . पंच परमेश्वर के जुम्मन शेख और अलगू चौधरी ,बूढी काकी के बुद्धिराम, नशा कहानी के बीर या फिर स्वयं बड़े भाई साहेब जैसे अनेक पात्र हमारी अपनी दुनिया में मिल जाया करते हैं.
मुक्तिबोध न प्रेमचंद को आत्मा का शिल्पी बताया था. आत्मा पर संस्कारों की गर्द जम जाया करती है .प्रेमचंद उस गर्द और गुबार को साफ करके आत्मा को गढ़ते  हैं. भारत जैसे प्राचीन देश में परम्पराएं और संस्कार बेहद  जटिल और उलझाऊ हैं . जाति और वर्ण के संस्कार हैं तो कहीं स्त्री और पुरुष के .गरीबी –अमीरी ,शिक्षित अशिक्षित से लेकर सभ्य-असभ्य तक के अनेक सवाल संस्कारों और परम्पराओं से ही उपजते हैं .संस्कार और परम्पराएं बद्धमूल होकर समाज को कुंठित और गतिहीन बना देती हैं .ऐसे में समाज के भीतर से आलोचक पैदा होते हैं  जो परंपरा के शुभ तत्व को पहचान कर आगे ले जाते हैं तथा जड़ और अशुभ का साहस के साथ खंडन करते हैं .कबीर और गाँधी हमारे समाज के  ऐसे ही आलोचक थे  . प्रेमचंद भी इसी कड़ी में भारतीय समाज के भीतरी आलोचक हैं । प्रेमचंद साहित्य को जीवन की आलोचना मानते हैं.यह वही कह सकता है जो जीवन से बहुत गहरे जुड़ा हो  .प्रेमचंद जीवन से बहुत गहरे जुड़े हुए थे .जीवन के विविध रंग ही नहीं उसकी विसंगतियां भी प्रेमचंद के सामने प्रकट थीं ,प्रेमचंद ने उनकी बेलौस आलोचना की है. आलोचना करते हुए प्रेमचंद कभी भी  ऊंचे आसन पर बैठे  उपदेशक  नहीं लगते. वे समाज के भीतर से समाज को देख रहे हैं । इसीलिए उनकी आलोचना मर्म को छूती है .प्रेमचंद की आलोचना एक तरफ जड़ मानसिकता को उद्वेलित करती है तो दूसरी तरफ  सामान्य मनुष्य को प्रेरित और प्रभावित करती है ।
प्रेमचंद की पहली लड़ाई जन्म के संस्कारों से है .क्या हम जन्म के संस्कारों से ऊपर उठ सकते हैं ?क्या हमारी शिक्षा दीक्षा हमें जन्म के संस्कारों से मुक्त कर सकती है ?प्रेमचंद की एक अपेक्षाकृत कम पढ़ी गयी कहानी है ‘आगा पीछा’,जिसमे प्रेमचंद ने सवाल उठाया है –‘क्या कोई औषधि नहीं जो जन्म के संस्कारों को ख़त्म कर दे’ .कहानी का नायक  भगत राम  दलित है . वह स्वयं जन्म के नाते समाज में उपेक्षा और घृणा का शिकार  है .फिर भी वह  जहर खाकर जान दे देता है,परअपनी प्रेमिका श्रद्धा जो  वेश्या की पुत्री है , से विवाह करने को तैयार नहीं हो पाता.प्रेम और जन्म के संस्कार के इस द्वंद्व में प्रेमचंद संस्कार की जड़ता को उजागर करते हैं और दिखाते  हैं कि जन्म का संस्कार किस तरह प्रेम और मनुष्यता का गला घोंट देते हैं. ‘पशु से मनुष्य’ कहानी में प्रेमचंद जड़ संस्कारों की चूल हिलाते नजर आते हैं .डॉ मेहता बार एट ला मामूली गलती पर अपने माली पर कोड़े बरसाते हैं और उसे नौकरी से निकाल देते हैं जबकि स्वयं बड़े बड़े अपराध करते हैं .बाद में डॉ मेहता माली को प्रेमशंकर के सहकारी बागवानी में काम करते और खुशहाल देखकर चिढ जाते हैं और उसकी शिकायत करते हैं .शिकायत का असर होता  न देखकर वे जाते जाते प्रेमशंकर से कहते हैं –‘इससे होशियार रहिएगा .यूजेनिक्स (सुप्रजनन शास्त्र)अभी तक किसी ऐसे प्रयोग का आविष्कार नहीं कर सका है ,जो जन्म के संस्कारों को मिटा दे!’
जन्म के संस्कार के नाम पर मनुष्य को मनुष्य से हीन  बनाने वाली  व्यवस्था प्रेमचंद के निशाने पर रहती है.यह जन्म का ही संस्कार है जो श्रम को हेय और त्याज्य बताता है . सदगति कहानी में लकड़ी की एक बड़ी कडियल  गांठ है जिसे पंडित घासीराम दुखी को फाड़ने के लिए देते हैं. उस गांठ पर दुखी जी जान लगाकर चोट करता है लेकिन उसे फाड़ नहीं पाता.लकड़ी को फाड़ने के चक्कर में अपनी जान जरूर गँवा देता है.कई बार मुझे सदगति कहानी की यह गांठ जन्म के संस्कारों में बंधे भारतीय समाज के रूपक की तरह लगती है .यह जड़ सामाजिक संस्कारों की ही गाँठ है जिस पर प्रेमचंद निरंतर प्रहार करते हैं . दूध का दाम कहानी में भूंगी महेशनाथ से कहती है –‘मालिक,भंगी तो बड़े बड़ों को आदमी बनाते हैं, उन्हें  कोई क्या आदमी बनाएगा’ .अपनी एक कहानी  ‘सभ्यता का रहस्य’ में  प्रेमचंद कहते हैं कि  ‘सभ्यता केवल ऐब को हुनर के साथ करने का नाम है .आप बुरे से बुरा काम करें ,लेकिन अगर आप उस पर परदा डाल सकते हैं तो आप सभ्य हैं ,सज्जन हैं ,जेंटिलमैंन   हैं’ .प्रेमचंद मनुष्य की गरिमा को किसी भी तरह ठेस पहुँचाने वाली सभ्यता के हर ढकोसले को उजागर करते हैं और पाखण्ड के समाजशास्त्र को बेपर्दा करते हैं. प्रेमचंद हमें यह भी बताते हैं कि महाजनी सभ्यता के साथ आया  ‘समय ही धन है’ जैसा   जुमला आदमीयत को ख़त्म कर रहा है. यहाँ प्रेमचंद लोककवि भिखारी ठाकुर की याद दिलाते हैं –‘कहत भिखारी भिखार होई गइलीं दौलत बहुत कमा  के’(भिखारी कहते हैं कि बहुत दौलत कमाने के चक्कर में हम आदमीयत के मामले में बेहद  दरिद्र हो जाते  है.)
हर वो विचार  हर वो कार्य जो मनुष्य को बेहतर बना सकता है प्रेमचंद को भाता है । अगर वे कभी आर्य समाज के निकट गए तो इसलिए कि एक दौर में आर्य समाज ने हिन्दू समाज की संकीर्णताओं पर प्रहार किया था । गांधी की पुकार में उन्हें भारतीय समाज की मुक्ति की आहट सुनाई पड़ रही थी, इसीलिए वे गांधी के पास गए . ।प्रेमचंद को अंबेडकर इसलिए पसंद थे कि वे(अम्बेडकर) हिन्दू समाज के जड़ बंधनों को काटकर दलितों के लिए  मुक्ति- मार्ग प्रशस्त कर रहे थे । इसी तरह प्रेमचंद ने  प्रगतिशील लेखक संघ की सदारत करना इसलिए स्वीकार  किया कि उन्हें लगा कि यह संगठन सौंदर्य के मानदंड में बदलाव करके भारत की सांस्कृतिक चेतना को उन्नत करेगा । अपने अध्यक्षीय  उद्बोधन में जब प्रेमचंद ने कहा कि साहित्यकार स्वभाव से ही प्रगतिशील होता है तो वे अपने स्वभाव का ही परिचय दे रहे थे । प्रेमचंद के  स्व-भाव  का बयान ग़ालिब के इस शेर में बखूबी होता है-चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज रौ  के साथ /पहचानता नहीं हूँ ,अभी राहबर को मैं। 
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                        
     

मंगलवार, 11 मार्च 2014

नायक विहीन समय में प्रेमचन्द की याद



कुछ तारीखें कागज के कैलेण्डरों पर दर्ज होती हैं और याद रखी जाती हैं या पर कुछ तारीखें ऐसी भी होती हैं जो दिल के कैलेन्डर में दर्ज होती हैं और अनायास याद आ जाती हैं। प्रेमचन्द की जन्मतिथि 31 जुलार्इ ऐसी ही तारीख है। काशी की नागरी प्रचारिणी सभा भले ही प्रेमचन्द जयन्ती न मनाती हो लेकिन छोटे-छोटे स्कूलों में, सुदूर ग्रामीण अंचल में सक्रिय नामालूम सी कितनी ही संस्थाएं प्रेमचन्द जयन्ती पर छोटे बड़े आयोजन करती रहती हैं। 31 जुलार्इ जैसे-जैसे करीब आती है, ग्रामीण अंचलों से प्रेमचन्द जयंती के आयोजन की खबरें मिलने लगती हैं। बिना किसी प्रेरणा या प्रोत्साहन के प्रेमचन्द जयन्ती पर आयोजनों का स्वत: स्फूर्त सिलसिला चल निकलता है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द अकेली ऐसी शखिशयत हैं जिनकी जयंती इतने बड़े पैमाने पर मनायी जाती है। कबीर और तुलसी के बाद हिन्दी पêी में ऐसी व्यापक लोक स्वीकृति प्रेमचन्द को ही प्राप्त है। प्रेमचन्द की यह लोक स्वीकृति उनकी छवि को नायक का दर्जा देती है। जिस समय में हम जी रहे हैं वह नायक विहीन समय है। हमारे सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक जीवन में ऐसे किरदार नहीं रह गये हैं जिन्हें सहजता के साथ नायक मान ले। नायक की तरह रंगमंच पर उपसिथत होने वाले हर शख्स के भीतर एक छिपा हुआ खलनायक रहता है जो अवसर-बे-अवसर प्रकट होकर फर्जी नायक का पर्दाफाश कर देता है। ऐसे समय में प्रेमचन्द जैसे लेखक की जयंती सुकून देती है।
यों तो प्रेमचन्द की छवि इतनी साधारण है कि उसमें दूर-दूर तक नायक होने की सम्भावना नहीं है। ऐसा कर्इ बार हुआ कि प्रेमचन्द से मिलने आने वाले लोग उन से ही पूछ बैठते थे कि यहाँ कहीं प्रेमचन्द रहते हंै? उनके व्यकितत्व में ऐसी कोर्इ विशिष्टता न थी जो उन्हें दूसरों से अलग करे। अमृत राय (प्रेमचन्द के बेटे और हिन्दी के कथाकार आलोचक अनुवादक) ने प्रेमचन्द का जो चित्र खींचा है वह इस प्रकार है- उसको (प्रेमचन्द को) मगर पहचानते कैसे! कोर्इ विशेषता जो नहीं है उसमें। अपने आस-पास वो ऐसा एक भी चिन्ह नहीं रखना चाहता, जिससे पता चले कि वो दूसरे साधारण जनाें से जरा भी अलग है। कोर्इ त्रिपुण्ड-तिलक से अपनी विशेषता की घोषण करता है, कोर्इ रेशम के कुर्ते और उत्तरीय के बीच से झाँकने वाले अपने ऐश्वर्य से, कोर्इ अपनी साज-सज्जा के अनोखेपन से, कोर्इ अपने किसी खास अदा या ढ़ंग से। यहाँ तक कि यत्न साधित सतर्क सरलता भी होती है जो स्वयं एक प्रदर्शन या आडंबर बन जाती है, शायद सबसे अधिक विरकितकर। देखो, इतना बड़ा नामी आदमी होकर भी मैं कितनी सादगी से रहता हूँ। प्रेमचन्द की सरलता सहज है। उसमें कुछ तो इस देश की पुरानी मिêी का संस्कार है। कुछ उसका नैसर्गिक शील है, संकोच है कुछ उसकी गहरी जीवन दृषिट है और कुछ उसका सच्चा आत्म गौरव है।
दरअसल इस देश की पुरानी मिêी का संस्कार और उससे निर्मित गहरी जीवन दृषिट ही उन्हें यह लोक स्वीकृति दिलाती है। इस गहरी जीवन दृषिट में भीगी प्रेमचन्द की कहानियाँ भारत के आम आदमी को कदम ब कदम याद आती हैं। मेरे एक पड़ोसी जो दवा का व्यापार करने हैं हरिश्चन्द्र घाट पर एक दाह संस्कार में मेरे साथ थे। चमचमाता हुआ कफन देखकर उन्हें कफन कहानी के घीसू का कथन याद आया कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढ़ाकने को चीथड़ा भी न मिले उसे मरने पर नया कफन चाहिए। मुझे आश्चर्य हुआ कि श्मशान घाट पर जिस संस्कार में शामिल होने हम आये हैं प्रेमचन्द की कहानी उसी का आलोचनात्मक पाठ हमारे सामने रख रही है। प्रेमचन्द दरअसल हमारी परम्परा के भीतरी आलोचक हैं। परम्परा के भीतर जो कुछ आलोच्य है, उसकी आलोचना करते हैं। यह आलोचना करते हुए, वे समाज और परम्परा से बाहर खड़े हुए उपदेशक की तरह नहीं; बलिक परम्परा में मौजूद संकीर्णताआें का दंश झेलते हुए सामान्य मनुष्य की तरह व्यवहार करते हैं। प्रेमचन्द जति, धर्म, स्त्री-पुरूष के नाम पर होने वाले विभेद की दृढ़तापूर्वक आलोचना करते हैं। इसीलिए एक समय में उन्हें घृणा का प्रचारक कह कर निनिदत और अपमानित करने की कोशिश की गयी थी। प्रेमचन्द ने साहित्य में घृणा का स्थान निबन्ध लिखकर बताया कि सच्चा साहित्य बचपन घृणा करने वाली वस्तु या प्रवृत्ति से घृणा करना सिखाता है।
मेरे बचपन के एक मित्र जो गाव में ही रहकर स्कूल चलाते हैं वे प्रेमचन्द की कहानी नमक का दारोगा के कायल हैं। उनका मानना है कि यह कहानी हमारे समय की सचार्इ है। र्इमानदार और कत्र्तव्यनिष्ठ नमक के दारोगा वंशीधर को व्यवस्था भ्रष्ट और पतित अलोपीदीन का सेवक बना देती है। जब वंशीकर पढ़ार्इ पूरी करके नौकरी की तलाश में निलकते हैं तो उनके अनुभवी पिता सीख देते हैं- नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूंढना जहाँ कुछ उपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है जो एक दिन दिखार्इ देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है! उपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। अनुभवी पिता की इस सीख पर वंशीधर ने भले कान न दिया हो लेकिन हमारे सामाजिक तंत्र में यह सामान्य अनुभव हो गया है। कहानी के शुरू में ही प्रेमचन्द लिखते हैं- जब नमक का नया विभाग बना और र्इश्वर प्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोर्इ घूस से काम निकालता था, कोर्इ चालाकी से। ऐसा लगता है कि प्रेमचन्द औपनिवेशिक युग में विकसित हो रहे पूजीवादी तंत्र का घोषणा पत्र ही लिख रहे हैं। एक सामान्य सी सीधी सादी कहानी समूले भ्रष्ट तंत्र की रूपक कथा बन जाती है। र्इमानदारी और कत्र्तव्य निष्ठा मुअत्तली की ओर ले जायेगी इसलिए भलार्इ अलोपीदीन का शरणागत होने में है। विशालकाय तंत्र के शोषण चक्र में दिन ब दिन पिसते और परीशान होते सीधे सरल आदमी को प्रेमचन्द की यह कहानी व्यवस्था के चरित्र को जानने और उस पर हँसने का अवसर देती है।
इसी तरह कुछ लोगों को र्इदगाह कहानी याद रहती है। कहानी का हामिद बूढ़ी दादी अमीना के लिए अपने प्यार के बल पर चिमटे जैसी कुरूप और उपेक्षित वस्तु को सुन्दर और स्पृहणीय बना देता है यह मानवीय प्यार हामिद के भीतर एक ऐसा जज्बा पैदा करता है जो उसे सारी दुनिया के विरूद्ध तन कर खड़ा होने की ताकत देता है। इसी प्यार से सारे अभावों के बावजूद अपने तमाम हम उम्र और सम्प™ा बच्चों को अपना मुरीद बना लेता है। नये पूँजीवादी समाज में मानवीय रिश्तों की अहमियत खत्म होती जा रही है। ऐसे में यह कहानी अकेले पड़ते आदमी को मानवीय रिश्तों की गहरार्इ और सम्प™ाता का एहसास कराती है।
पंच परमेश्वर कहानी के जुम्मन शेख और अलगू चौधरी अपनी न्याय निष्ठा के लिए याद किए जाते हैं। बूढ़ी काकी जैसी कहानी भूख की सृजनात्मकता का पता ही नहीं देती बलिक बूढ़ी काकियों के प्रति संवेदनशील बनाती है। लाटरी कहानी लोभ और धार्मिक कर्मकाण्डों के सम्बन्ध को उजागर करती है तो नशा कहानी झूठे दंभ की पोल खोलती है। इस तरह प्रेमचन्द की कहानियाँ हमारी आत्मा को रचती हैं। अमानवीय समय में हमें मानवीय बनाती हैं।
प्रेमचन्द का साहित्य और प्रेमचन्द का जीवन हमे यह भी बताता है कि इस देश की मिêी की सुगंध को पहचानने वाले व्यकित को ही नायक का दरजा मिल सकता है, जैसे कि गांधी को मिला।

‘प्रेमचंद’को प्रेमचन्द ही रहने दें /सदानंद शाही





इधर प्रेमचंद फिर बहस के घेरे में हैं । अबकी बहस इस बात पर हो रही है कि प्रेमचंद प्रगतिशील थे या नहीं । थोड़े दिन पहले बहस इस बात पर हो रही थी कि प्रेमचंद दलित विरोधी हैं या नहीं । अतिवादी दलित यह सिद्ध करने में लगे हुये थे कि प्रेमचंद दलित विरोधी थे । उनका मूल तर्क यही था कि वे जन्म से सवर्ण थे इसलिए वे दलित हितैषी हो ही नहीं सकते । मामला यहीं तक नहीं थमा । कुछ लोग उन्हें दलित विरोधी साबित करने में ज़मीन आसमान एक किए हुये थे । फिर क्या था ,दूसरा खेमा भी क़मर कस कर मैदान में आ डटा । ये लोग प्रेमचंद को दलित हितैषी ही नहीं बाकायदा दलित लेखक बनाने पर तुले गये  । सहानुभूति बनाम स्वानुभूति को लेकर बहस हुयी । प्रेमचंद की कृतियाँ ऐसे जोशो खरोश से जलायी गईं मानो मनुस्मृति ही जलायी जा रही हो । हालांकि जब मनुस्मृति जलायी गयी थी उस समय होश से ज्यादा काम लिया गया था । प्रेमचंद स्वयं भले सीधे –सादे रहे हों पर उनको लेकर विवादों का सिलसिला कभी थमा ही नहीं । प्रेमचंद के जीवन काल मेँ उनका विरोध वे लोग कर रहे थे जो आज की दलित राजनीति के सवर्ण हैं  । प्रेमचंद की कहानियों के पंडित मोटेराम शास्त्री प्रकट हो गए थे । ठाकुर श्रीनाथ सिंह जैसे लोग लठ्ठ लेकर पीछे पड़े थे  । निंदा,कुत्सा प्रचार गाली गलौज से लेकर मुकदमेबाजी तक हुयी । अंग्रेज तो बस सोजे वतन की प्रतियाँ ज़ब्त कर के रह गए । यहाँ भाई लोगों ने कुछ छोड़ा नहीं । प्रेमचंद को घृणा का प्रचारक कह कर निंदित किया गया । प्रेमचंद ने ऐसे लोगों का जवाब अपनी कलम से दिया । साहित्य में घृणा का स्थान  लेख इसका नमूना है।
अब बहस गांधीवाद और मार्क्सवाद के बीच हो रही है । कुछ लोग उन्हें कम्युनिष्ट तो  कुछ गांधीवादी साबित करने मेँ  लगे हुये हैं , कुछ आर्य  समाजी । प्रेमचंद की जन्मकुंडली खगाली जा रही है । वे कब किससे मिले , कब किस सभा मेँ  गए ,किन किन सभाओं की सदारत की । किन किन बैंकों मेँ  खाता था ,खातों मे पैसा कितना था । गोदान के होरी की तरह उन्होंने कब सूद पर पैसे चलाये आदि आदि ॰।
इधर एक तर्क यह चल पड़ा है कि  “अमुक  लेखक को पढ़ने समझने मेँ  मैंने सारा जीवन लगा दिया इसलिए उसके बारे में मेरा ही फैसला  अंतिम  है” । कमल किशोर गोयनका कहते फिरते हैं कि मैंने प्रेमचंद की सेवा मेँ अपना जीवन लगा दिया इसलिए प्रेमचंद के बारे मेँ फैसला करने का अधिकार मेरा है । बाकी लोग जो तीन –तेरह (यह प्रयोग उनका है ,मुहावरा भी गलत है और प्रयोग भी )रचनाओं के आधार पर प्रेमचंद के बारे मेँ  राय देते हैं वह सिरे से गलत है । यह अलग बात है कि गोयनका की  टिप्पणियां भी उन्हीं  तीन –तेरह रचनाओं पर ही आधारित होती हैं । और वे जब कुछ कम चर्चित कहानियों का हवाला देते हैं तो अजीबो - गरीब निष्कर्ष निकालते हैं । 31 जुलाई को जनसत्ता मेँ  प्रकाशित अपनी टिप्पणी मेँ वे गमी और कानूनी कुमार कहानियों को परिवार नियोजन की  समस्या की कहानी   बताते हैं । गमी कहानी तो मुझे किसी संग्रह मेँ मिली नहीं ,लेकिन 1929 मेँ माधुरी मेँ  प्रकाशित कानूनी कुमार कहानी मेरी पढ़ी हुयी थी ।   यह  कहानी प्रेमचंद की अद्भुत व्यंग्य क्षमता का उदाहरण है । व्यंग्य की धार कहानी की पहली पंक्ति से ही फूट पड़ती है।   प्रेमचंद कहानी के प्रमुख पात्र का चित्र यों खींचते हैं -“मि0 कानूनी कुमार, एमएलए अपने ऑफिस मेँ समाचार पत्रों ,पत्रिकाओं और रिपोर्टों का एक ढेर लिए बैठे  हैं । देश की चिंताओं मेँ उनकी देह स्थूल हो गयी है ;सदैव देशोद्धार की फिक्र मेँ  पड़े रहते हैं  कानूनी कुमार को घर बैठे जो समस्याएँ सूझती हैं उनके लिए वे कानून का मसौदा तैयार करने लग जाते हैं। मजे की बात यह है कि वे कोई मसौदा तैयार भी नहीं कर पाते । प्रेमचंद इस कहानी मेँ ऐसे फर्जी देशोद्धारकों पर व्यंग्य  करते हैं ।  इसे प्रेमचंद को गांधीवादी या मार्क्सवादी कहे बगैर भी समझा जा सकता है । अब जीवन भर की उस महान साधना का क्या कीजिएगा जो इस कहानी को परिवार नियोजन की कहानी बताए । गोयनका जी को प्रेमचंद की बालक कहानी में व्यक्त यौन  नैतिकता और आधुनिकता भी अकल्पनीय लगती है ।
जिन लोगों ने भिखारी ठाकुर का नाटक “गबरघिचोर” देखा या पढ़ा होगा उन्हें गोयनका जी की तरह आश्चर्य नहीं होगा ।नाटक का एक पात्र गलीज कलकत्ता कमाने गया है । इस बीच गलीज की पत्नी का संबंध गड़बड़ी से हो जाता है । इसी संपर्क से गबरघिचोर पैदा होता है । नाटक में गलीज की पत्नी गबरघिचोर पर अपना हक़ साबित करने के लिए दिलचस्प तर्क देती है-मेरे पास दूध है अगर मैंने दही  जमाने के लिए किसी से जोरन ले लिया तो क्या दही उसका हो जाएगा । यह ऐसी यौन नैतिकता है जो भारतीय समाज की बहुस्तरीय संरचना मे मौजूद है ।  भारत का जीवन बहुस्तरीय है और यहाँ कि नैतिकता के भी अनेक संस्तर हैं । भारत की आत्मा इस बहुस्तरीयता मेँ बसती  है । प्रेमचंद इस बहुस्तरीयता से परिचित हैं और इसकी कथा कहते हैं । भारतीय जीवन को मि कानूनी कुमार की तरह घर बैठे नहीं जाना जा सकता ।
इसलिए प्रेमचंद का कम्युनिस्ट पाठ अगर इकहरा है तो भारत व्याकुल पाठ भी असंगत है । प्रेमचंद के विरोधी अलग अलग वजहों से उनके विरोधी हैं ,इसी तरह प्रेमचंद के समर्थक भी अलग अलग वजहों से समर्थन कर रहे हैं । वजह साफ है जिसका जैसा चश्मा उसके  वैसे प्रेमचंद । इसमे भी कोई दिक्कत नहीं है । सबको अपने ढंग से प्रेमचंद को देखने का हक़ हासिल है । समस्या तब होती है जब आप केवल अपने खूँटे को सही साबित करने पर आमादा हों ।  
जिस तरह से यह बहस  हो रही है उसमें   प्रेमचंद ही छूटे  जा रहे हैं । प्रेमचंद  बस किनारे बैठे मुस्करा रहे हैं  कि भाई बहस से खाली होना तो कुछ मेरी भी खोज खबर ले लेना ।  प्रेमचंद की मुस्कान में बहुत गहरा  अर्थ छुपा है। ऐसा मैंने क्या लिख दिया कि सब बेचैन हैं । आखिर इस बेचैनी का सबब क्या है ?
असल में प्रेमचंद भारतीय समाज के भीतरी आलोचक हैं । वे किसी ऊंचे आसन पर बैठे उपदेशक की तरह नहीं बल्कि समाज के भीतर से समाज को देख रहे हैं । प्रेमचंद की आलोचना जड़ मानसिकता का मुंह चिढ़ाती है और  सामान्य मनुष्य को प्रेरित और प्रभावित करती है ।  हर वो विचार  जो मनुष्य को बेहतर बना सकता है प्रेमचंद को भाता है । बक़ौल गालिब –चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेजरौ  के साथ /पहचानता नहीं हूँ ,अभी राहबर को मैं। 
अगर वे कभी आर्य समाज के निकट गए तो इसलिए कि एक दौर में आर्य समाज ने हिन्दू समाज की संकीर्णताओं पर प्रहार किया था । गांधी की पुकार में उन्हें भारतीय समाज की मुक्ति की आहट सुनाई पड़ रही थी ।प्रेमचंद  अंबेडकर की प्रशंसा इसलिए करते हैं कि वे हिन्दू समाज के जड़ बंधनो को काटकर दलितों के लिए  मुक्ति- मार्ग प्रशस्त कर रहे थे । इसी तरह प्रेमचंद ने  प्रगतिशील लेखक संघ की सदारत करना स्वीकार  किया तो इसलिए कि उन्हें लगा कि यह संगठन सौंदर्य के मानदंड में बदलाव करके भारत की सांस्कृतिक चेतना को उन्नत करेगा । अपने उद्बोधन में जब प्रेमचंद ने कहा कि साहित्यकार स्वभाव से ही प्रगतिशील होता है तो वे अपने स्वभाव का ही परिचय दे रहे थे । प्रेमचंद  जड़ों से जुड़े हुये थे लेकिन जड़ नहीं थे । वे हर  तरह की जड़ता के विरोधी थे ।  उन्हें  इस या उस जड़ता से समझने समझाने की कोशिश बेकार । प्रेमचंद को प्रेमचंद ही रहने दें । इसी रूप वे हमें  और हमारे समाज को आगे ले जाने में सक्षम हैं ।

राजेंद्र यादव के निधन पर शोक संवेदना





आज की सुबह राजेंद्र यादव के निधन की खबर से शुरू हुयी ।
 नयी कहानी के स्तंभों मे से एक राजेंद्र यादव ने 1986 से हंस पत्रिका का सम्पादन अपने हाथ मे लिया और तब से निरंतर हंस निकालते  रहे । हंस का अनवरत प्रकाशन हिमालय जैसे संकल्प की मांग करता है ।राजेंद्र यादव के आलोचकों का कहना था कि कहानीकार के रूप में चुक जाने के बाद उन्होने हंस का प्रकाशन शुरू किया ।यह ठीक है कि हंस के प्रकाशन से राजेंद्र यादव का अपना लेखन काफी  प्रभावित हुआ लेकिन नयी रचनाशीलता को विकसित ,प्रोत्साहित और स्थापित करने में हंस की  भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है ।तीन दशकों की  सुदीर्घ यात्रा मे हंस   ने कम से कम कथाकारों की  तीन पीढ़ियों के विकास में योगदान दिया ।
हंस पत्रिका जब शुरू हो रही थी तब एक एक कर बड़े घरानो से निकालने वाली साहित्यिक पत्रिकाएँ  बंद हो रही थीं । धर्मयुग ,साप्ताहिक हिंदुस्तान ,दिनमान ही नहीं कहानियों की  पत्रिका सारिका भी बंद हो चली थी ।इन सभी पत्रिकाओं की जगह  अकेले हंस ने भरी । सच बात तो ये है कि हंस ने केवल खाली जगह नहीं भरी बल्कि अपने लिए अलग से जगह बनाई । राजेन्द्र यादव ने हिन्दी मे मौजूद सामंती चेतना से लगातार संघर्ष किया । हंस ने स्त्री और दलित लेखन को प्रकाशित और स्थापित ही नहीं किया बल्कि  इसके लिए  एक आंदोलन जैसा चलाया । राजेंद्र यादव ने यह करके साहित्य के दायरे को विस्तारित ही नहीं  किया बल्कि उसके सरोकारों  को भी फिर से परिभाषित किया  । 

मुझे याद आता है कि 90 में एक बार वे गोरखपुर आए थे ।गोरखपुर विश्वविद्यालय में तब प्रेमचंद पीठ की  स्थापना हुयी हुयी थी । प्रेमचंद पीठ के निदेशक प्रोफ परमानद श्रीवास्तव ने 'प्रेमचंद और भारतीय उपन्यास "पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी  आयोजित की थी । इस संगोष्ठी में राजेंद्र यादव और नामवर सिंह दोनों उपस्थित थे । दोनों में तीखी नोकझोक हुयी थी । तब नामवर सिंह ने कथासाहित्य को मृत या मरणासन्न कह दिया था । इस पर राजेंद्र यादव काफी खफा हुये थे । संगोष्ठी मे दोनों एक दूसरे पर खड्गहस्त  थे और बाद में एक साथ बैठे और दोस्तों की तरह बात कर रहे थे । इस पूरे वाकये पर  कुछ लोगों ने भगवती चरण वर्मा की कहानी के  दो बाँको  को याद किया । असल मे पिछड़ी सामंती चेतना के लिए  वैचारिक असहमति और व्यक्तिगत संबंध दोनों को एक साथ स्वीकार करना असंभव लग रहा था । राजेंद्र यादव जीवन भर इस सामंती चेतना से संघर्ष करते रहे ।  स्त्री लेखिकाओं के बारे मे  होने वाले प्रवादों को वे हमेशा पुरुष मन की कुंठाओ से जोड़ कर देखने के हामी थे ॥ 

...... राजेन्द्र यादव के जाने से हिन्दी साहित्य के सिगार से उठता धुंवा हमेशा के लिए खत्म हो गया लेकिन उनकी याद पिछड़ी सामंती,स्त्री और दलित विरोधी चेतना को खत्म करने की प्रेरणा देती रहेगी । 

सदानंद शाही 
निदेशक 
प्रेमचंद सहित्य संस्थान 
संपादक ,साखी 
प्रोफ  हिन्दी विभाग 
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय 
वाराणसी 

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

प्रेमचन्द साहित्य संस्थान

संक्षिप्त इतिहासः बुद्ध, गोरखनाथ और कबीर की वाणी से आन्दोलित होने वाला यह पूर्वांचल एक महान` परम्परा वाला क्षेत्र् रहा है। प्रेमचन्द इस परम्परा की अन्तिम कड़ी थे। दुभार्ग्यवा वह परम्परा किन्हीं कारणों से विच्छिन्न हो गयी। आज परिणाम यह हुआ है कि इस क्षेत्र् की सांस्क्रतिक पहचान जैसे खो गई है। उस पहचान को वापस लाने के लिये, एक प्रकार से पूवीर् उत्तार प्रदेा के सांस्क्रतिक नवजागरण को स्फुरित करने के लिये गोरखपुर में ॑प्रेमचन्द साहित्य संस्थान॔ की परिकल्पना की गयी। प्रो.सदानन्द ााही की पहल पर कुछ उत्साही युवाओं ने मिलकर १९९ में प्रेमचन्द के ऎतिहासिक आवास को उनके एक स्मृति केन्द्र के रूप में संजोते हुए उसे उसके भूगोल में सांस्क्रतिक नवजागरण का प्रतीक बनाने का सपना देखा जिसे अमृतराय, भीम साहनी, माकर्ण्डेय, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, एस. आर. किदवई जैसे अनेक साहित्यकारों एवं िाक्षाविदों का समथर्न मिला। ऎसे संस्थान कलाकारों, लेखकों के आवास को उनके स्मृति केन्द्र के रूप में सुरक्षित रखने के उदाहरण के रूप में विव में थोड़े ही हैं। प्रेमचन्द साहित्य संस्थान उन कतिपय ला?ानीय प्रयासों में से एक है। प्रेमचन्द के साहित्य में भारतीय परम्परा के श्रेयस` तत्तव को सुरक्षित रखते हुए जो आधुनिक अग्रगामी दृिट है वह अनन्य है। प्रेमचन्द साहित्य के केन्द्र में उस सामान्य जन को लाये जिसे की लगभग अद्धरताब्दी बीतने के बाद भी भारतीय समाज में केन्द्रीयता नहीं प्राप्त हो सकी थी। ॔वििाट॑ के स्थान पर ॔सामान्य॑ के सौन्दर्य को उद`?ााटित कर उन्होंने हमारे सौन्दर्य बोध को जातिवादी और सामन्ती जकड़बन्दी से मुक्त किया, उसे अधिक उन्मुक्त और उदात्ता बनाया। प्रेमचन्द का साहित्य हमारे स्व का विस्तार करता है और हमारे भीतर अपनी परम्परा के प्रति आलोचनात्मक विवेक उत्पन्न करता है। इस उदात्ता परम्परा बोध से सम्पन्न यह संस्थान आज साहित्य, संगीत और कला के जनपक्षधर विकास को समपिर्त है। निजी अनुदानों से संचालित यह संस्था समय समय पर काव्यपाठ, कहानी"पाठ, विचार गोिठयाँ और रचना प्रतियोगिताएँ आयोजित करता रहा है। प्रत्येक स्थानीय प्रयासों को राट्रीय फलक देते हुए यह प्रत्येक र्वा प्रेमचन्द जयन्ती का आयोजन करता है।

इन आयोजनों में नामवर सिंह, श्रीलाल ाुक्ल, असगर वज़ाहत, कँुवरपाल सिंह, गंगा प्रसाद विमल, राजकिाोर, प्रो. चन्द्रकला पाण्डेय पूर्व सांसद एवं सुश्री सुभािानी अली सहगल पूर्व सांसद जैसे विद्वानों के व्याख्यान हुए है। विजयदान देथा, दूधनाथ सिंह, नीलकांत सहित अनेक युवा कहानीकारों का कहानी पाठ त्र्लिोचन, केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, बोधिसत्व, क्रणमोहन झा, जितेन्द्र श्रीवास्तव, पंकज चतुवेर्दी जैसे कवियों के काव्य पाठ इसके महत्वपूर्ण आयोजन रहे हैं। संस्थान ने सन` १९९३"९४ में राहुल सांक्रत्यायन की जन्माती पर विोा आयोजन किये। सन` १९९६ में ॔दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचन्द॑ पर आयोजित राट्रीय संगोठी को राट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई। संस्थान के निदेाक प्रो. सदानन्द ााही के सम्पादकत्व में इसी नाम से प्रकािात पुस्तक ने दलित विमार् में भी कुछ अन्य महत्वपूर्ण पहलू जोड़े और पूवीर् उत्तार प्रदेा में दलित विमार् को गति और दिाा दी।

सन` १९९७ में निराला जन्माती पर ॔निराला और उत्तार औपनिवेिाक समय॑ विाय पर एक अत्यन्त महत्वपूर्ण राट्रीय संगोठी आयोजित की गई, जिसमंे हिन्दी तथा अनेक भारतीय भाााओं के महत्वपूर्ण रचनाकारों की हिस्सेदारी थी।विख्यात कवि त्र्लिोचन सहित अनेक संस्क्रति कर्मियों को संस्थान समय समय पर सम्मानित करता रहा है। जिसमें पद`मविभूाण तीजनबाई भी ाामिल हैं।कबीर के ६ वीं जयन्र्तीवा में कबीर पर अनेक आयोजन किये गए जिनमें ॔कबीर का अनभै साँच॑ विाय पर नामवर सिंह का प्रसिद्ध व्याख्यान ाामिल है। कबीर पर एक दिवसीय राट्रीय संगोठी भी आयोजित की गई। प्रेमचंद की १२५ वीं जयन्ती र्वा में संस्थान ने पूरे साल आयोजन किये। इस आयोजन का आरम्भ नामवर सिंह के प्रसिद्ध व्याख्यान ॔प्रेमचन्द पुनः पुनः॑ से गोरखपुर में हुआ। ॔प्रेमचन्द और स्त्र्ी विमार्॑ ाीार्क राट्रीय संगोठी मंे प्रो. चन्द्रकला पाण्डे सांसद, राज्यसभा सुभािानी अली सहगल पूर्व सांसद, प्रो. पी. एन. सिंह, प्रो. र?ाुवंा मणि आदि ने हिस्सेदारी की। प्रेमचन्द के १२५ वें जन्म र्वा पर संस्थान के आयोजनों में सबसे महत्वपूर्ण आयोजन ॑गोदान को फिर से पढ़ते हुए॔ ाीार्क अन्तरार्ट्रीय संगोठी ५ से ८ नवम्बर २५ थी। प्रेमचन्द की सबसे महत्वपूर्ण और कालजयी क्रति गोदान के बहाने प्रेमचन्द पर समकालीन सन्दभोंर् में बातचीत हुई। प्रेमचन्द संस्थान की साहित्य दृिट में एक ओर हिन्दी प्रदेा की सांस्क्रतिक चिंताएँ हंै, तो दूसरी तरफ वैिवक सांस्क्रतिक चिंताएँ है। वैिवक सभ्यता विमार् को ख्याल में रखते हुए संस्थान ने ॔वी.एस. नॉयपाल का भारत॔ और ॔एडवडर् सईद और समकालीन बौद्धिक विमार्॑ विायक महत्वपूर्ण संगोिठयाँ आयोजित कीं हैं। साहित्यिक और अकादमिक बहसों की साथर्कता उनके सामान्य जन तक पहुचने में है।

इसी दृिट से संस्थान प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह के संपादन में महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र्किा ॔साखी॑ का प्रकाान करता है। इसके अतिरिक्त ॑कर्मभूमि॔ नामक स्मारिका तथा प्रेमचन्द ?ार"?ार में योजना के तहत अनेक प्रकाान योजनाएं भी संचालित करता है। वतर्मान वैिवक सांस्क्रतिक परिदृय में स्त्र्ी विमार् एक महत्वपूर्ण मुद`दा है। महादेवी वमार् हिन्दी प्रदेा की ऎसी रचनाकार हैं जिन्होने स्त्र्ी की वेदना को स्वर दिया है और उसकी मुक्ति का पथ प्रास्त किया है। संस्थान महादेवी के जन्माती र्वा में उनके साहित्य का पुनर्मूल्यांकन स्त्र्ी मुक्ति के भारतीय प्रतीक के रूप में करने का प्रस्ताव करता है। इटली के तूरीनो विवविघालय से प्रेमचन्द साहित्य संस्थान का विगत तीन"चार वाोर्ं से अनुबन्ध है। वहाँ के छात्र् हिन्दी सीखने तथा कबीर और प्रेमचन्द का विोा अध्ययन करने र्वा मेंं दो बार संस्थान आते है। इस तरह प्रेमचन्द संस्थान की सक्रियता के स्थानीय, राट्रीय एवं अन्तरार्ट्रीय आयाम हैं।

उद`देय एवं कार्यः सामाजिक परिवतर्न एवम` विकास में साहित्य की वििाट भूमिका होती है। प्रेमचन्द साहित्य को जीवन की आलोचना मानते थे। जीवन की सकारात्मक आलोचना से साहित्य जीवन और समाज के परिवतर्न तथा विकास में अपनी भूमिका अदा करता है। साहित्य की इस भूमिका को संभव बनाने के लिए प्रेमचन्द साहित्य संस्थान की स्थापना की गयी है। संस्थान का उद`देय प्रेमचन्द और उनकी विचारधारा के समस्त सजर्नात्मक साहित्य का अध्ययन, मूल्यांकन, अनुसंधान तथा प्रचार"प्रसार करना है।

ाोध केन्द्रः संस्थान एक ऎसा केन्द्र होगा जिसमें देा विदेा के ाोधाथीर् प्रेमचन्द और उनकी विचारधारा के साहित्य का विोा अध्ययन विलेाण तथा अनुसंधान कर सकें। प्रेमचन्द भारत की जातीय चेतना के रचनाकार थे, इस रूप में प्रेमचन्द ने केवल हिन्दी साहित्य नही, अपितु, समूचे भारतीय साहित्य को प्रभावित किया है। इस ाोध केन्द्र का प्रयास होगा कि समूचे भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में प्रेमचन्द का अध्ययन और सम्यक` मूल्यांकन संभव हो सके। स्वाधीनता आन्दोलन और उसके समानान्तर चलने वाले किसान आन्दोलन की गहरी छाप प्रेमचन्द की रचनाओं मंे दिखाई पड़ती है। इस रूप में प्रेमचन्द के साहित्य पर ाोध के क्रम में स्वतंत्र्ता पूर्व होने वाले आन्दोलनों के प्रक्रति की छान"बीन भी संभव हो सकेगी।

प्रकाानः प्रेमचन्द साहित्य संस्थान ॔साखी॑ त्र्ैमासिक पत्र्किा का प्रकाान कर रहा है। संस्थान के उद`देयों को साकार करने तथा पाठकों की सांस्क्रतिक चेतना को उन्नत करने हेतु ॔साखी॑ नामक पत्र्किा प्रकािात की जा रही है। सुप्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह इसके प्रधान सम्पादक हैं।

पुस्तकालयः प्रेमचन्द साहित्य संस्थान एक नियमित पुस्तकालय का संचालन कर रहा है। पुस्तकालय में प्रेमचन्द की परम्परा के श्रेठ साहित्य का संकलन किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त वैचारिक और सामाजिक विायों से संबंधित श्रेठ चिन्तनपरक साहित्य का भी संकलन किया जा रहा है। संस्थान के पुस्तकालय में बच्चों के लिए एक अनुभाग ाुरू किया गया है। इसके अतिरिक्त वैचारिक और सामाजिक चेतना विकसित करने के लिए यह पुस्तकालय कार्य कर रहा है। १४ माचर् १९९६ से यह पुस्तकालय अब प्रेमचन्द पाकर् स्थित ऎतिहासिक प्रेमचन्द निकेतन में हैं जहाँ नार्मल स्कूल में अध्यापन करते हुए प्रेमचन्द १९१६ से १९२१ तक रहे थे।

पाठक सेवाः संस्थान श्रेठ रचनात्मक साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए पाठक सेवा संचालित कर रहा हैं।

मासिक रचना गोठीः नये रचनाकारों को प्रोत्साहित करने तथा पुराने रचनाकारों की नयी क्रतियों से परिचित होने के लिए संस्थान मासिक रचना गोिठयों का आयोजन कर रहा है। इसके अतिरिक्त संस्थान कुछ महत्वपूर्ण कवियों और चिन्तकों की जयन्तियों एवं पुण्यतिथियों पर आयोजन करके उनके विचारों का प्रचार प्रसार करता है।

प्रेमचन्द साहित्य पुरस्कारः संस्थान प्रेमचन्द की साहित्य परम्परा को प्रोत्साहन देने के लिए साधन उपलब्ध होते ही हर दूसरे र्वा प्रेमचन्द की परम्परा के श्रेठ भारतीय लेखक को प्रेमचन्द साहित्य पुरस्कार से सम्मानित करेगा।

अध्येता वृतिः आथिर्क स्रोत उपलब्ध होने पर संस्थान प्रेमचन्द सम्बधी ाोध कार्य को प्रोत्साहित करने के लिए अध्येतावृत्तिायां भी उपलब्ध कराएगा।

प्रेमचन्द स्मृतिकक्षः संस्थान प्रेमचन्द स्मृतिकक्ष के रूप में एक संग्रहालय स्थापित करने का प्रयास कर रहा हैंं। जिसमें प्रेमचन्द की पाण्डुलिपियाँ, पत्र्, उपयोग की गयी सामग्री तथा दुलर्भ चित्र् आदि जुटाये जा रहे हंै।

अतिथि गृहः संस्थान एक सुसज्जित अतिथिगृह की व्यवस्था करेगा जिसमें बाहर से आने वाले ाोधाथिर्यों को आवास की सुविधा दी जा सके।

प्रेमचन्द विवदृिट सम्पन्न लेखक हैं। उनके पाठक और अध्येता पूरी दुनिया में फैले हुए है। इस संस्थान के माध्यम से प्रेमचन्द और उनकी परम्परा के साहित्य पर केन्दि्रत अध्ययन विलेाण"संवाद प्रकाान आदि को सुव्यवस्थित योजना के अनुरूप वित्तीय सहायता राट्रीय, प्रादेिाक तथा स्थानीय सभी स्तरों पर अपेक्षित होगी। हम जनता एवं प्राासन दोनों को इस महान आयोजन में भागीदार बनाना चाहते हैं।

आप प्रेमचन्द साहित्य संस्थान का सहयोग कर सकते हैं।

१. संस्थान की गतिविधियों में भागीदारी करके।
२. संस्थान की पत्र्किा ॔साखी॑ तथा संस्थान पुस्तकालय का वािार्क/आजीवन सदस्यता ग्रहण करके।
३. संस्थान पुस्तकालय के लिए आथिर्क तथा पुस्तकीय सहयोग देकर। विोाः पुस्तकालय को ५/का आथिर्क सहयोग देने पर दाता अथवा उसके द्वारा प्रस्तावित नाम पर पुस्तक खण्ड स्थापित करने की व्यवस्था है। इस क्रम में सदााय िावरत्न लाल खण्ड स्थापित किया जा चुका है।
४. संस्थान की गतिविधियों के संचालन के लिए सहयोग हेतु संकल्प पत्र् भर कर।
५. संस्थान द्वारा प्रस्तावित ॔प्रेमचन्द स्मृति कक्ष॑ के लिए प्रेमचन्द की पाण्डुलिपि, चित्र् उपयोग की गई सामग्री तथा इस सम्बन्ध मंे सुझाव भेजकर।
६. संस्थान की गतिविधियों में सहभागिता तथा सहयोग के लिए लोगों को प्रेरित करके। आपके सक्रिय सहयोग एवं सुझाव की प्रतीक्षा रहेगी।